मोदी की एतिहासिक भाषाई पहल

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डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक : 

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही वह चमत्कारी काम कर दिया, जो अब तक भारत का कोई प्रधानमंत्री नहीं कर सका। उन्होंने पड़ोसी देशों के नेताओं को भारत तो बुलाया ही, उनसे हिंदी में ही बात की। ये दोनों काम ऐसे हैं, जिनके लिए मैं पिछले कई वर्षों से लड़ रहा हूँ।

मैं सभी प्रधानमंत्रियों को प्रेरित करता रहा हूँ लेकिन नरेंद्र मोदी में वह संस्कार, सामर्थ्य और ईमानदारी है कि उन्होंने गुलाम मानसिकता को छोड़कर महान प्रधानमंत्री बनने का मार्ग अपने आप चुन लिया है। भाषा के सवाल पर वे उसी मार्ग पर चल रहे हैं जो गुजरात के दो महापुरुषों– दयानंद और गांधी ने हमें बताया था।

यों तो अटलजी ने हमारा अनुरोध स्वीकार करके संयुक्त राष्ट्र संघ में पहली बार हिंदी में भाषण दिया था लेकिन वह भाषण महान वक्ता अटलबिहारी वाजपेयी का नहीं था। वह अफसरों के अंग्रेजी में लिखे भाषण का अनुवाद हिंदी में था, जिसे उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में पढ़ दिया था। प्रधानमंत्री चंद्रशेखरजी ने भी मेरे आग्रह पर मालदीव में हुए दक्षेस-सम्मेलन में अपना भाषण हिंदी में दिया था। वह हिंदी का मौलिक भाषण था लेकिन ये दोनों घटनाएँ मात्र औपचारिकताएँ बनकर रह गयीं। अटलजी के दौर में संयुक्तराष्ट्र में और स्वराष्ट्र में भी अंग्रेजी छायी रही। यही चंद्रशेखरजी के अल्पकाल में भी हुआ। नरसिंहरावजी जब चीन गये तो मैंने एक चीनी विद्वान को अनुवाद के लिए तैयार किया था। वह धारा प्रवाह हिंदी बोलता था और दिल्ली में रहकर पढ़ा था लेकिन राव साहब ने पेइचिंग में अपने भाषण और वार्तालाप की भाषा अचानक अंग्रेजी कर दी।

नरेंद्र मोदी ने दक्षेस-नेताओं से हिंदी में बात की। सभी पड़ोसी देशों के नेता हिंदी बोलते और समझते हैं, सिवाय श्रीलंका और मालदीव के। पड़ोसी देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से मैं पिछले 40-45 साल से मिलता रहा हूँ। श्रीलंका और मालद्वीव के नेताओं से मुझे अंग्रेजी में मजबूरन बात करना पड़ती है वरना नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान और तिब्बत के नेताओं और आम लोगों से हिंदी में ही बात होती है। नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वे किसी भी औपचारिक अवसर पर हिंदी के अलावा किसी भी विदेशी भाषा में बात न करें। अपनी भाषा में कूटनीति करने का महत्व सदियों से स्वयंसिद्ध हो चुका है। संधियों और कानूनी दस्तावेजों में भी स्वभाषा के प्रयोग के लिए सभी महाशक्तियाँ जोर देती रही हैं। यदि हम अंग्रेजी की बजाय संबंधित देशों की भाषाओं में अनुवादकों के जरिये कूटनीति करें तो हम कहीं ज्यादा प्रभावी और सफल होंगे और अपनी मूलभाषा हिंदी रखें तो पर्याप्त गोपनीयता भी बनाये रख सकेंगे।

क्या विदेश मंत्री सुषमा स्वराज अपने प्रधानमंत्री के इस स्वभाषा-प्रेम को आगे बढ़ायेंगी? सुषमा-जैसी विलक्षण प्रतिभा और वाग्शक्ति की स्वामिनी महिला भी क्या हीन भावना से ग्रस्त हो सकती है? उन्हें अंग्रेजी की गुलामी की क्या जरुरत है? सुषमाजी के व्यक्तित्व पर लोहियाजी के विचारों कीं गहरी छाप है। वे हिंदी आंदोलन में मेरे साथ उत्साहपूर्वक काम करती रही हैं। आज इंडियन एक्सप्रेस में यह पढ़कर मुझे दुख हुआ कि उन्होंने पड़ोसी अतिथियों से अंग्रेजी में बात की। उन्हें चाहिए कि वे विदेश मंत्रालय के सारे अफसरों से उनका काम-काज हिंदी में करवायें और खुद उनसे हिंदी में ही बात करें। उन्हें यह आदेश भी दें कि वे अंग्रेजी के अलावा दुनिया की दर्जनों महत्वपूर्ण भाषाएँ भी सीखें ताकि हमारी विदेश नीति गुलाम भारत की नहीं, स्वतंत्र भारत की विदेशनीति-जैसी लगे।

(देश मंथन, 07 जून 2014)

 

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