शहाबुद्दीनवादी सरकार क्या समझेगी शहादत का मोल…

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अभिरंजन कुमार, पत्रकार :

बिहार के अमर शहीद अशोक सिंह की पत्नी और हमारी बहन संगीता ने शहीदों को दिए जाने वाले मुआवजों को लेकर जो सवाल उठाए हैं, उसने हमारी कई सरकारों और राजनीतिक दलों की बेशर्मी और फूहड़पने की पोल खोल कर रख दी है।

देश के लिए कश्मीर के उरी में जान देने वाले शहीद की पत्नी को बिहार की इशरतवादी शहाबुद्दीनवादी बेशर्म सरकार ने महज 5 लाख रुपये के मुआवजे का चेक थमा दिया, जबकि पिछले ही महीने शराब पीकर मरने वालों के परिजनों को भी उसने करीब-करीब इतना ही मुआवजा दिया था- चार-चार लाख रुपये का।

जिस वक्त संगीता के सामने उनके पति का पार्थिव शरीर धरा था और जिस वक्त सिर्फ उन्हीं का परिवार नहीं, बल्कि पूरा बिहार शोक और सदमे में डूबा हुआ था, उसी वक्त जब मुआवजे के रूप में बिहार सरकार ने उन्हें बेइज्जती का चेक भेजा, तो संगीता की अंतरात्मा दोहरे दर्द और अपमान से कराह उठी। उन्होंने कहा- “बिहार सरकार भिखारी है। उसके भीख की जरूरत नहीं है। उसकी भीख हम क्यों लेंगे? जब सभी सरकारों ने 20 लाख का एलान किया है, तो वह पाँच लाख क्यों दे रही है? हमारा पति कोई नाली में गिरकर मरा है? शराब पीकर मरा है? हमको नहीं चाहिए उसका पैसा। रक्खे अपने पास।“

सच! अशोक सिंह कोई नाली में गिरकर या शराब पीकर थोड़े ही मरे हैं! उन्होंने तो देश के लिए जान दी है। हमारे लिए, आपके लिए, देश के 125 करोड़ लोगों के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है। ऐसे ही बलिदानियों को महाकवि माखन लाल चतुर्वेदी ने देवी-देवताओं और चक्रवर्ती सम्राटों से भी बढ़कर दर्जा दिया था और “पुष्प की अभिलाषा” को कुछ इस तरह बयान किया था-

“चाह नहीं सम्राटों के शव पर, हे हरि डाला जाऊं

चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ूं, भाग्य पर इठलाऊं।

मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक।“

लेकिन जो लोग आतंकवादी इशरत को बिहार की बेटी मानते रहे हों और देशद्रोह के आरोपियों का पलक-पाँवड़े बिछा कर स्वागत करते रहे हों, उन्हें एक शहीद के बलिदान का मोल क्या समझ आएगा? इसलिए हैरानी नहीं कि सुशासन बाबू की सरकार ने एक शराबी और एक शहीद में कोई फर्क नहीं समझा।

यह पहला मौका नहीं है, जब नीतीश सरकार ने राष्ट्र-बलिदानियों की ऐसी बेइज्जती की हो। इससे पहले, अगस्त 2013 में भी देश के लिए अपनी जान न्योछावर करने वाले चार सपूतों का पार्थिव शरीर बिहार आया था, लेकिन उन्हें रिसीव करने के लिए उनका एक भी मंत्री एयरपोर्ट नहीं पहुँचा था। उल्टे जले पर नमक छिड़कते हुए उनके सबसे “लायक” मंत्रियों में से एक भीम सिंह ने कहा था- “जवान तो शहीद होने के लिए ही होते हैं! सेना और पुलिस में नौकरी क्यूं होती है?”

इतना ही नहीं, शहीदों के लिए नीतीश सरकार की संवेदनहीनता के बारे में और सुनेंगे, तो आपका खून खौल उठेगा। उन चार शहीदों में से एक शंभू शरण के अंतिम संस्कार के लिए राज्य सरकार ने कोई इंतजाम नहीं किया। मजबूरन उनके गरीब परिजनों को उनकी चिता गोबर के उपलों (गोइठा) और किरासन तेल से जलानी पड़ी थी। बाद में जब यह तस्वीर बाहर आई, तो राज्य के हर नागरिक का कलेजा काँप उठा था, लेकिन नीतीश सरकार की मोटी चमड़ी पर इसका कितना असर हुआ, इसे तो ताजा मुआवजा प्रकरण से समझा ही जा सकता है।

बहरहाल, शहीदों के परिजनों को दिये जाने वाले मुआवजे को लेकर बिहार ही नहीं, देश के सभी राज्यों की नीतियाँ शर्मनाक हैं। कुछ बानगियाँ देखिए-

• उरी के शहीदो के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने 20 लाख, महाराष्ट्र सरकार ने 15 लाख, झारखंड सरकार ने 10 लाख और बिहार सरकार ने महज 5 लाख रुपये का मुआवजा दिया। यह भेदभाव गलत है, निंदनीय है, शर्मनाक है, देश के माथे पर कलंक है।

• उत्तर प्रदेश सरकार ने दादरी कांड के मृतक अखलाक के परिवार को 45 लाख रुपये दिया, जबकि उरी में शहीद होने वाले राष्ट्र-बलिदानियों के परिजनों को महज 20 लाख रुपये।

• दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने एनडीएमसी अधिकारी एमएम खान और एनआईए अधिकारी तंजील अहमद के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपये का मुआवजा दिया, जबकि देश के शहीदों के परिजनों को कहीं 20 लाख, तो कहीं 5 लाख दिये जा रहे हैं।

• आजकल यह शर्मनाक चलन भी देखा जा रहा है कि कुछ पार्टियों की सरकारें मुआवजे देने में सांप्रदायिक आधार पर भेदभाव करती हैं। एक मजहब के लोगों के लिए कुछ। दूसरे मजहब के लोगों के लिए कुछ।

इसलिए हमारी माँग है कि शहीदों के परिजनों को दिए जाने वाले मुआवजे और सम्मान को लेकर राष्ट्रीय नीति बने, ताकि बार-बार उनकी बेइज्जती न हो।

1. चूंकि राष्ट्र के लिए दिया गया बलिदान सर्वोच्च है, इसलिए इसके लिए दिये जाने वाले मुआवजे की रकम अन्य किसी भी तरीके से होने वाली मृत्यु के बाद दिए जाने वाले मुआवजे से अधिक होनी चाहिए।

2. चूंकि देश की रक्षा करते हुए जान देने वाला हर शहीद किसी राज्य मात्र का नहीं, बल्कि पूरे देश का होता है, इसलिए पूरे देश में शहीदों के परिजनों के लिए मुआवजे की रकम एक समान हो।

3. मौजूदा स्थितियों में, शहीदों के परिजनों के लिए अन्य सहायताओं और सरकारी नौकरियों के अलावा, कम से कम 5 करोड़ रुपये की सम्मान-राशि तय की जाए और हर पाँच साल पर इसकी समीक्षा कर उचित मात्रा में बढ़ाया जाए।

4. शहीदों के परिजनों को दिए जाने वाले पैसे को मुआवजा न कहा जाए, बल्कि इसे प्रशस्ति-पुष्प, सम्मान-सुमन, कृतज्ञता-ज्ञापन या ऐसी ही कोई गरिमामय संज्ञा दी जाए।

5. हर शहीद के जिले में उनका स्मारक बने। साथ ही, उनके नाम पर पार्क, चौराहे, सड़कें, द्वार, विद्यालय, अस्पताल इत्यादि भी बनवाए जाएं, ताकि लोग उनकी शहादत को भुला न सकें।

6. शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले। यह सिर्फ किताबी बात भर न रहे, बल्कि हर शहीद के स्मारक पर उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि के कार्यक्रम आयोजित किए जाएं। इसमें राज्य का कम से कम एक मंत्री और स्थानीय प्रशासन के सभी जिम्मेदार अधिकारी मौजूद रहें। इन कार्यक्रमों से स्कूली बच्चों को जोड़ा जाये और स्थानीय विधायकों, सांसदों तथा अन्य जन-प्रतिनिधियों को भी मौजूद रहने के लिए कहा जाए।

7. शहीदों के परिजनों की जिम्मेदारी देश की है। इसलिए, उन्हें किसी तरह की तकलीफ़ न हो और उनकी किसी तरह से उपेक्षा न होने पाए, सरकार इसका पक्का इंतज़ाम करे। साथ ही, 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दिवसों पर होने वाले सरकारी आयोजनों में उन्हें ससम्मान और अनिवार्य रूप से बुलाया जाए।

हमारी अपील है कि केंद्र की मोदी सरकार और खुद प्रधानमंत्री कार्यालय, रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय इस दिशा में शीघ्रातिशीघ्र पहल करे, ताकि फिर किसी शहीद की विधवा का वैसा अपमान न हो, जैसा बिहार में देश की बेटी और हम सबकी बहन संगीता का हुआ है।

(देश मंथन, 23 सितंबर 2016)

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