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अपने पुरुषार्थ से पाकिस्तान को सबक सिखा सकते हैं
अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
मोदी के समूचे भाषण के दौरान अमेरिकी संसद में लगातार तालियाँ बजती रहीं। यद्यपि उनकी अंग्रेजी से मैं कभी इम्प्रेस नहीं होता, फिर भी मनमोहन की अंग्रेजी से इसे बेहतर मानता हूँ। मनमोहन तो हिंदी बोलते थे या अंग्रेजी-कभी लगता ही नहीं था कि उनकी तबीयत ठीक-ठाक है।
अपने जातिवादी और सांप्रदायिक मित्रों से दो टूक
अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
मेरे कई मित्रों की मुश्किल है कि जब मैं मोदी, बीजेपी और आरएसएस की आलोचना करता हूँ, तो वे पढ़ते नहीं या पढ़ कर इग्नोर कर देते हैं, लेकिन जब मोदी, बीजेपी, आरएसएस के विरोधियों की आलोचना करता हूँ, तो वे हमारी निष्ठा पर सवाल उठाने लगते हैं।
मिशन यूपी 2017 : भाजपा के लिए खुद में झांकने का समय
पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
यह कहने में शायद ही किसी को हिचक होगी कि एक हजार साल बाद देश में वह राज आया है, जहाँ सत्ता का शिखर पुरुष छद्म धर्मनिरपेक्षता का स्वांग नहीं करता और ' सबका साथ सबका विकास' के मंत्र का जाप करने के बावजूद भारतीय संस्कृति को बेखौफ ओढ़ता है। देश की विरासत और धरोहरों को सर-आँखों पर रखते हुए अनथक देश की दशा और दिशा बदलने में सतत प्रयत्नशील है। जिस सिस्टम को 15 अगस्त 1947 में बदल जाना चाहिए था, उसको जिन लोगों ने अपने फायदे के लिए बरकरार रखा और लालची मीडिया को अपने पाले में रखते हुए जिन्होंने भ्रष्टाचार को लूटपाट में बदल दिया। उस विकृत हो चुकी व्यवस्था को बदलने की प्रक्रिया की भी देश ने विगत दो वर्षों के दौरान शुरुआत होते देखा।
आजादी माने खुन्नस?
अजय अनुराग:
राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रभक्ति के बाद अब सबसे जटिल व उलझा हुआ शब्द है- 'आजादी'। आज देश में आजादी की चर्चा ऐसे की जा रही है मानों हम किसी गुलाम देश में हों। लेकिन नहीं, आजादी माँगने वालों का कहना है कि आजादी देश से नहीं, देश में चाहिए।
चुप हैं किसी सब्र से तो पत्थर न समझ हमें…
राजेश रपरिया :
मोदी सरकार के लगभग दो साल के राज में खेती और उससे जुड़े लोगों के आर्थिक हालात मनमोहन सिंह राज के अंतिम दो तीन सालों से ज्यादा खराब हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में हताशा व्याप्त है प्राकृतिक आपदाओं की बेरहम मार तो खेती को झेलनी ही पड़ी है पर मोदी सरकार के रवैये ने खेती के संकट को खूंखार बना दिया है। अनेक राज्यों में किसानों की बढ़ती आत्महत्याएँ ग्रामीण भारत में बढ़ती हताशा और निराशा का द्योतक है।
ऐसी दिखती है 2016 की तस्वीर!
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
तो साल बदल गया। जैसा हर साल होता है, हर साल कुछ बदलता है, लेकिन बहुत-कुछ नहीं भी बदलता। जो कभी नहीं बदलता, उस पर बात भी कभी नहीं होती। आखिर यथावत पर क्या बात की जाये? वह तो जैसा है, वैसा ही रहेगा। गरीब हैं तो हैं, गरीबी है तो है, करोड़ों लोग बेघर हैं तो हैं, वह तो वैसे ही रहेंगे और विकास का सिनेमा देखते रहेंगे, रैलियों में भीड़ बनते रहेंगे, भाषणों पर तालियाँ बजाते रहेंगे, वोट देते रहेंगे, जिन्दगी बदलने की आस में सरकारें बदलते रहेंगे और यथावत जीते रहेंगे, यथावत मरते रहेंगे।
अनपेक्षित नहीं हैं बिहार के नतीजे : महागठबंधन की हर रणनीति कामयाब
अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
लालटेन की रोशनी में तीर के सारे निशाने कमल पर सही लगे। यह रिजल्ट अनपेक्षित नहीं था। लोकसभा चुनाव के बाद पिछले साल 10 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों से ही इसका संकेत मिल गया था। इस चुनाव के लिए भी महागठबंधन की तैयारी हर स्तर पर बीजेपी से बेहतर थी। मोदी और बीजेपी का हर राज जानने वाले प्रशांत किशोर की चाणक्य-बुद्धि भी महागठबंधन के काम आ गयी।
चोर की दाढ़ी में तिनका
अखिलेश शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार :
म्यांमार में की गई भारतीय सेना की कार्रवाई पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया देख कर कोई हैरानी नहीं हुई। उसका करुण क्रंदन और उसी रुआंसे स्वर में भारत को धमकी देने का अंदाज अपेक्षित था।
आपको मिर्ची लगी तो कोई क्या करे
पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
कांग्रेस को वाकई 'बेचारा' ही कहा जाएगा.. जो अनाथ हो उसके लिए भारत में ऐसा ही संबोधन किया किया जाता है।
सौ दिन, एक साल, दो सरकारें!
कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली दिलचस्प संयोग देख रही है। एक सरकार के सौ दिन, दूसरी के एक साल! दिलचस्प यह कि दोनों ही सरकारें अलग-अलग राजनीतिक सुनामियाँ लेकर आयीं। बदलाव की सुनामी! जनता ने दो बिलकुल अनोखे प्रयोग किये, दो बिलकुल अलग-अलग दाँव खेले।