रिश्तों के बारे में आत्ममंथन करें

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

मुझे अपने परिचित से पूछना ही नहीं चाहिए था कि तुम्हारी मौसी कहाँ चली गईं? मैंने पूछ कर बहुत बड़ी गलती की और उस गलती का खामियाजा ये है कि आज कुछ लिखने का मन ही नहीं कर रहा है। रात भर सोने का उपक्रम करता रहा, करवटें बदलता रहा। फिर लगा कि आपसे इस बात को साझा कर लूं, शायद मेरा दुख थोड़ा कम हो जाए। 

 

आज मैं कोई भूमिका नहीं बनाना चाहता। आज मैं कोई दाएं-बाएं की बात भी नहीं करना चाहता। आज मैं सीधे-सीधे आपको वो सब सुना देना चाहता हूँ, जिसे सुन कर शायद आपके भी कान सुन्न हो जाएंगे। 

मेरे परिचित की मौसी पिछले दिनों उसके घर आयी थीं। वो किसी और शहर में रह रही थीं। बहुत सालों से वो अकेली रह रही थीं। मैंने ऐसा सुना है कि उनकी शादी हुई थी, पति से बनी नहीं, फिर वो अकेली रहने लगीं। पर तब वो सक्षम थीं, नौकरी करती थीं। बहुत साल पहले उनकी नौकरी भी जाती रही। पर मौसी अकेली आराम से थीं। फिर धीरे-धीरे उम्र का प्रभाव शुरू हुआ और वो खुद अपनी देखभाल करने में असमर्थ सी होने लगीं। 

मौसी अपने शहर से कभी-कभी मेरे परिचित के घऱ आती थीं। वो बहुत कम बोलती थीं और चुपचाप एक जगह बैठी रहती थीं। वो आती थीं, फिर अपने शहर चली जातीं थीं। मैं उनसे दो-तीन बार मिला हूँ। अपने परिचित से मैंने पूछा था कि तुम्हारी मौसी अकेली क्यों रहती हैं। मेरे परिचित ने मुझे उनकी पूरी कहानी सुनाई थी। मैं मन ही मन सोचता था कि अपने परिचित से कहूँ कि मौसी अकेली रहती ही क्यों हैं, आप उन्हें अपने साथ क्यों नहीं रख लेते। पर मैं कह नहीं पाया। 

जब मैं बहुत छोटा था, तब मेरी मौसी हमारे साथ ही रहती थीं। वो मुझे रोज स्कूल के लिए तैयार करती थीं। मुझे नहलाती थीं, मेरे बालों में कंघी करती थी। मुझे कपड़े पहनती थीं। मेरी मौसी बहुत सुंदर थीं। 

फिर मेरी मौसी की शादी हो गयी। मैं बहुत रोया था। मैंने पिताजी से कई बार कहा था कि मौसी को घर ले आइए। मैं इतना रोया था कि पिताजी मुझे मौसी के पास ले गये थे। मौसी ने मुझे देखते ही गले से लगा लिया था, अले… छंजय बेटा आया है। छंजय बेटा मौसी की गोद में दुबक गया था। मौसी की गोद से मुझे माँ की खूशबू आती थी। 

फिर मैं बड़ा होता गया तो मुझे समझ में आता गया कि बच्चे अपनी माँ के पास रहते हैं, मौसी के अपने बच्चे हो जाते हैं, तो उनके बच्चे उनके पास रहते हैं। मौसी के अपने बच्चे हो गये थे। पर मौसी का प्यार मेरे लिए कम नहीं हुआ था। मिलना कम हो गया था, पर रिश्तों की खूशबू बरकरार रही। माँ संसार से चली गयी थी, पर  माँ सी थी। माँ के चले जाने के बाद भी मैं बहुत बार मौसी के पास गया। मौसी अपने चार बच्चों के बीच मुझ पाँचवें को भी खूब प्यार करती रही। 

खैर, आज कहानी मुझे अपनी मौसी की नहीं सुनानी। आज मुझे अपनी परिचित की मौसी की कहानी भी नहीं सुनानी। आज मुझे सिर्फ अपना दुख आपसे साझा करना है। 

मेरे परिचित ने मुझे बताया था कि मौसी आई हैं तो मेरा मन था कि जाकर उनसे मिल आऊंगा। वो बहुत बूढ़ी हो गई हैं, बीमार भी रहती हैं। ऐसे में उनसे मिल ही आना चाहिए। मैं जानता था कि वो कुछ बोलती नहीं। गुमसुम रहती हैं। पर फिर भी मेरा मन था, उनसे मिल आने का। 

मैं अपने परिचित के घर गया। वहाँ मुझे मौसी नहीं दिखीं। मैंने बस यही गलती कर दी कि मैंने अपने परिचित से पूछ लिया कि तुम्हारी मौसी कहाँ गईं?

मेरे परिचित ने मेरी ओर देखा और धीरे से कहा कि मौसी को ओल्ड एज होम भेज दिया गया है। वो बहुत बूढ़ी हो गई थीं। वो अकेली थीं। उनको देखने वाला कोई नहीं था। ऐसे में उन्हें बहुत परेशानी हो रही थी तो ओल्ड एज होम भेज दिया गया। 

इतना बताने के बाद उसने मुझसे सफाई में कहा कि दरअसल उन्हें पैसे की कमी नहीं थी। वो तो जिस ओल्जएज होम में गयी हैं, वहाँ सारी सुविधाएं हैं, उसकी फीस भी अच्छी खासी है। 

मैं चुप था। सोच रहा था कि पूछूं कि मौसी को रिश्तों की कमी क्यों हो गयी? नहीं पूछ पाया। मैं घर लौट आया और सारी रात यही सोचता रहा कि क्या सचमुच मौसी का कोई नहीं? या फिर बुढ़ापे का कोई नहीं। बहुत देर से सोच में डूबा हूँ। जिंदगी के किसी भी मोड़ पर अगर रिश्तों का यही मोल होना है, तो आदमी को कई-कई बच्चों की कामना ही नहीं करनी चाहिए। न बहन, न भाई। न कोई होगा, न मौसी, बुआ, चाची या कोई भी ऐसा रिश्ता किसी के पास होगा। जब किसी के पास कोई रिश्ता ही नहीं होगा, तो फिर न सोचने के लिए कुछ होगा, न रोने के लिए। 

संजय सिन्हा मान लेंगे कि उनका कोई नहीं था, उनके लिए ओल्ड एज होम खुला है, वो वहीं चले जाएंगे। वैसे ही, जैसे बचपन में पढ़ने के लिए बच्चे हॉस्टल चले जाते हैं। फिर वो अपना घर बनाते हैं और आखिर में ओल्ड एज होम। पर जिनके रिश्ते हैं, जिनकी बहन के बेटे हैं, जिनकी गोद से माँ की खूशबू आती है, वो भला ओल्ड एज होम में चली जाएं, और ये सुनते-कहते कि वो बूढ़ी थीं, अकेली थीं। 

आज और नहीं। कम्यूटर का की बोर्ड आखों की नमी से पिघल रहा है। 

कल कोई और कहानी लेकर आपके संजय सिन्हा आपके पास आएंगे। आज तो आप अपने रिश्तों के बारे में आत्ममंथन कीजिए। अगर आप की भी कोई मौसी, बुआ, चाची, मामी बूढ़ी हों तो क्या आप उन्हें अकेला कह पाएंगे? मैं जानता हूँ आप ऐसा नहीं कहेंगे। आप ऐसा कह ही नहीं सकते, क्योंकि आप तो संजय सिन्हा के परिजन हैं। 

(देश मंथन, 10 अप्रैल 2017)

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