संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
संजय से उसकी क्लास टीचर ने पूछा, “संजू अगर मैं तुम्हें दो रुपये दूँ, और फिर दो रुपये दूँ तो तुम्हारी जेब में कितने रुपये होंगे?”
संजू ने कहा कि मैडम जी, पाँच रुपये।
“अच्छा संजू, अगर मैं तुम्हें दो लड्डू दूँ, कुछ देर बाद फिर दो लड्डू दूँ तो तुम्हारे पास कितने लड्डू हुए?”
“जी मैडम जी, चार लड्डू।”
“वेरी गुड।”
“अब बताओ, अगर मैंने तुम्हें दो सेब दिये, फिर दो सेब और दिये तो तुम्हारे पास कितने सेब हुए?”
“जी मैडम जी, चार सेब।”
“वंडरफुल।”
“अब मैंने तुम्हें दो रुपये दिये, फिर दो रुपए और दिये तो फिर तुम्हारी जेब में कितने रुपए हुए?”
“जी मैडम जी, पाँच रुपये।”
“बेटा, क्यों गलती कर रहे हो? तुम गणित समझने तो लगे हो। फिर बार-बार एक ही गलती क्यों कर रहे हो? मैंने तुम्हें दो ल़ड्डू दिये, फिर दो और दिये तो चार हुए। मैंने तुम्हें दो सेब दिये, फिर दो सेब और दिये तो चार हुए। अब जब मैं तुम्हें दो रुपये दे रही हूँ, फिर दो और रुपये और दे रही हूँ, तो गिनती में गड़बड़ी क्यों कर रहे हो?”
“मैडम जी, आप मुझसे बार-बार पूछ रही हैं कि दो रुपये आपने दिये, फिर दोबारा दो रुपये आपने और दिये तो मेरी जेब में पहले से जो एक रुपया पड़ा है, उसे जोड़ कर तो पाँच रुपये ही हुए न! रही बात लड्डू और सेब की, तो वो मेरे पास नहीं हैं, इसीलिए चार ही रहे।”
मैडम ने अपना सिर पीट लिया।
यही सच है। जब हम सवाल पूछने में गलती करते हैं, तो हमें जवाब वैसे ही मिलते हैं। मैडम को संजू से पूछना चाहिए था कि मैंने तुम्हें दो रुपये दिये, फिर दो रुपये दिये तो बताओ संजय, मैंने तुम्हें कितने रुपये दिये, तो संजू सीधे-सीधे चार रुपए कहता। लेकिन मैडम बार-बार पूछ रही थीं कि तुम्हारी जेब में कितने रुपये हुए?
सुनने में बात बहुत मामूली लगेगी, लेकिन सच यही है कि हम जिंदगी से जिन सवालों के सही जवाब की उम्मीद करते हैं, उनके सवाल ही गलत पूछते हैं। अक्सर हम खुद से खुद के बारे में गलत सवाल पूछ कर भी सही जवाब की उम्मीद लगा लेते हैं। फिर हम सोचते हैं कि आखिर गलती कहाँ हुई? हम यह सोचने की जहमत नहीं उठाते कि हमने खुद से गलत सवाल पूछ कर उसके सारे जवाब गलत तैयार किये और जब उसमें सफलता नहीं मिली तो फिर किस्मत को दोष देने लगे। किसी संजू को मूर्ख ठहराने लगे। यह सोचने की कोशिश भी नहीं की कि बालक जब चार लड्डू और चार सेब कह रहा है, तो रुपये पाँच क्यों कह रहा है? इसका तो सीधा मतलब यही हुआ कि उससे जोड़ने में गलती नहीं हो रही। गलती है तो कहीं और है।
जिस मैडम ने संजू से गणित की कक्षा में ये सवाल पूछे थे, उनकी अपनी मर्जी कभी टीचर बनने की नहीं थी। उन्होंने खुद पूरी क्लास को एक दिन बहुत खीझ कर बताया था कि उन्हें तो ऐक्टर बनना था, पता नहीं कहाँ से टीचिंग में आ गयी। संजय को पता नहीं चला कि गणित वाली टीचर क्यों ऐक्टर नहीं बनीं, न यह पता चला कि ऐक्टर बनने की जगह वे क्यों और कैसे टीचर बन गयीं। पर इतना तो उसे उसी दिन पता चल गया था कि ये मैडम अपनी जिंदगी में गलत सवालों के सही हल ढूँढ़ती रह जायेंगी। बड़ा होने पर संजू ने यह निष्कर्ष भी निकाल लिया कि शायद ऐक्टर बनते-बनते अपने सवालों की उलझनों से वे टीचर बन गयी होंगी।
जब मैं छोटा था और मुझसे कोई गाना गाने को कहता तो मैं नाक से आवाज निकाल कर गाने लगता, “जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है..”
फिर जब धीरे-धीरे बड़ा हुआ तो समझ में आने लगा कि जिंदगी से पूछा गया यह सवाल गलत है क्योंकि जिंदगी तो जवाब वही देगी, जो जवाब हम उसे देने देंगे। ऐसे में गाने में यह होना चाहिए था, “जिंदगी मेरा इरादा ये है…।”
यह एक सामान्य गलती है जिसे हम अक्सर करते हैं। हम अक्सर खुद से खुद के लिए गलत सवाल-जवाब कर बैठते हैं। हम समझ नहीं पाते कि हम जो जवाब चाहते हैं उसके लिए सवाल कैसे होने चाहिए। मसलन, अगर कोई ऐक्टर बनना चाहता है और वह नहीं बन पा रहा, तो इसका मतलब यह हुआ कि उसने अपने आप से कभी यह पूछा ही नहीं कि आखिर कहाँ कमी रह गयी उसकी चाहत में? क्यों उसे वह मौका नहीं मिल सका जो उसे मिलना चाहिए था। मैंने कुछ दिन पहले विद्या बालन का इंटरव्यू पढ़ा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि वे ऐक्टर बनना चाहती थीं, और ऐक्टर के सिवा कुछ और नहीं।
उस इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि कैसे एक मोटी सी, मध्य-वर्ग की सामान्य-सी लड़की ने खुद से सवाल पूछा था कि क्या वह ऐक्टर बन पायेगी? और उसे जवाब मिला था कि आदमी अगर चाह ले तो क्या नहीं पा सकता। जिसके घर में दूर-दूर तक ऐक्टिंग की कल्पना भी किसी ने नहीं की हो, वहाँ सोलह साल की उम्र में एक लड़की को टीवी सीरियल ‘हम पांच’ में एक रोल मिल जाये तो उसके लिए बड़ी ही बात थी। इंटरव्यू में उसने बताया कि फिर कैसे उसने खुद से और सवाल किये कि क्या वह फिल्मों में जा सकती है? जवाब मिला हाँ, वजन कम करो। दृढ़ संकल्प करो। मेहनत करो। और विद्या को परिणिता फिल्म में हीरोइन का रोल मिल गया।
विद्या बालन की कहानी आपको मुझसे अधिक पता है, इसलिए मैं आज विद्या की कहानी नहीं सुनाने जा रहा। आपको सिर्फ यह बताने जा रहा हूँ कि विद्या ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि सफलता की पहली सीढ़ी वह सवाल है जिसे आप खुद से पूछते हैं। अगर आपका सवाल ठीक है तो जिंदगी जवाब भी ठीक देती है। ठीक वैसे ही, जैसे किसी भी मरीज की आधी बीमारी उसी दिन ठीक हो जाती है, जब मर्ज का पता चल जाता है।
सही इलाज तभी संभव है जब सही बीमारी का पता चल जाये। सही जवाब होता है, सही सवाल का पूछे जाना। ऐक्टर न बन पाने वाली मैडम ने यकीनन खुद से कभी सही सवाल नहीं पूछा होगा, तभी वे एक.. दो.. तीन.. चार.. की धुन पर थिरकने की जगह बच्चों को एक.. दो… तीन… चार…रटा रही थीं।
तो, अगली बार ध्यान रखियेगा कि जब भी आप किसी से पूछें कि आपने किसी को दो रुपये दिये, फिर दो रुपये और दिये, तो आपने कुल कितने रुपये दिये पूछियेगा। यह मत पूछियेगा कि तुम्हारी जेब में कितने रुपये हुए?
सही सवाल पूछिये और सही जवाब का आनंद उठाइये।
जिंदगी से यह मत पूछिये कि तेरा इरादा क्या है, उसे बताइये कि आपका इरादा यह है। अगर पूछना ही हो तो खुद से पूछिये कि मेरा इरादा क्या है? फिर आपका मन जो जवाब देगा, वही जवाब जिंदगी आपको देगी।
(देश मंथन, 19 जनवरी 2015)