आगे बढ़ते हम, पीछे छूटते अपने

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

मेरे पड़ोस वाली रेखा दीदी की शादी मेरी जानकारी में सबसे पहले चाँद के पास वाले ग्रह के एक प्राणी से हुई थी।

मुझे बताया गया था कि रेखा दीदी शादी के बाद बहुत बड़े हवाई जहाज में उड़ कर जिस देश में जाने वाली हैं, उसका नाम अमेरिका है।

“अमेरिका कहाँ है?”

“वो बहुत दूर है। आसामान में उड़ कर जाना पड़ता है।”

मैं हैरान होकर चाँद की ओर देखता, और पूछता, “क्या चाँद से भी आगे?”

यह वो सवाल होता, जिसका जवाब हम बच्चों में से किसी के पास नहीं होता।

सारे बच्चे मन में उड़ कर पहुँच जाते अमेरिका, और वहाँ से हाथ हिलाते देखते रेखा दीदी को।

रेखा दीदी की शादी हो गई। शादी के कई महीनों बाद रेखा दीदी उड़ कर अमेरिका चली गईं।

***

मुझे रेखा दीदी की बहुत याद आती। मैं सोचता रहता कि चाँद के पास वाले ग्रह, जहाँ रेखा दीदी गई हैं, वहाँ कौन उनका दोस्त होगा। वो किससे बातें करती होंगी? क्या चाँद पर रहने वाले लोग उनसे मिलने आते होंगे? वो सभी लोग क्या हिन्दी भी बोलते होंगे? 

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बहुत साल बाद रेखा दीदी अमेरिका से वापस आयी थीं। हम बच्चों से वो मिलीं। जब वो अमेरिका गई थीं, तब हम जितने छोटे थे, अब उतने छोटे नहीं रह गये थे। हम कुछ बड़े हो गये थे। लेकिन अमेरिका हमारे लिए एक अलग ग्रह की तरह ही कोई देश था। 

रेखा दीदी ने हमें वहाँ की ढेरों कहानियाँ सुनायीं। “जानते हो संजू, वहाँ घर की सफाई झाड़ू से नहीं होती। वहाँ मशीन से घर की सफाई होती है। जो आदमी हफ्ते या महीने में एक दफा घर की सफाई करने आता है, वो भी बड़ी सी गाड़ी में आता है। वहाँ कोई किसी के घर बिना पहले फोन किये नहीं जाता। वहाँ लोग एक-दूसरे से बेवजह बातें नहीं करते। वहाँ रोड के किनारे चाय वाले या पान वाले भैया से गुप्ता अंकल या शर्मा अंकल के घर का पता नहीं पूछा जा सकता। वहाँ समोसे और गोलगप्पे नहीं मिलते। वहां सबके घरों में फोन है। वहाँ सबके पास अपनी गाड़ी है। वहाँ रेडियो पर खबरें सुनायी ही नहीं पड़तीं, दिखायी भी पड़ती हैं। वहाँ बच्चा-बच्चा अंग्रेजी बोलता है। वहाँ बच्चे माँ के साथ नहीं सोते। वहाँ मेरी उम्र के बच्चे घर से अलग रहने लगते हैं।”

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बस-बस रेखा दीदी, रहने दीजिए। मैं अमेरिका कभी नहीं जाऊँगा। माना कि वहाँ घर की सफाई करने वाला कार में आता है, मशीन से घर साफ करता है। वहाँ समोसा और गोलगप्पे नहीं बिकते। मुझसे छोटे बच्चे भी अंग्रेजी बोलना जानते हैं, लेकिन ये क्या बात हुई कि किसी के घर जाने से पहले उससे पूछना पड़े। बच्चे माँ के साथ नहीं सो सकते। ना बाबा ना, मुझे कभी वहाँ जाना ही नहीं। 

रेखा दीदी मेरी बातें सुन कर हंस देतीं। 

मैं वहाँ से खिसक लेता, रेखा दीदी अपनी सहेलियों में घिर जातीं, और फिर उन्हें अमेरिका के बारे में सुनातीं, ढेरों कहानियाँ।

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बहुत साल बीत गये। एकदिन रेखा दीदी की तरह माँ भी मुझे छोड़ कर पता नहीं किस देश में चली गयी थीं। रेखा दीदी का तो मुझे पता था, वो आसमान में उड़ कर अमेरिका गयी थी। लेकिन माँ का शरीर जमीन पर पड़ा रह गया था, माँ उड़ गयी थीं। सबने बताया था कि माँ ऊपर भगवान के पास चली गयीं। 

अच्छा हुआ माँ अमेरिका नहीं गयीं। वो भला किसी से मिलने के लिए पहले फोन करतीं, उससे टाइम लेतीं और फिर मिलने जातीं, ये उससे मुमकिन नहीं होता। वो तो किसी के घर की दरवाजा खटखटातीं और उसके घर चली जातीं। कोई हमारे घर का दरवाजा खटखटाता और चला आता। जो आता, वो खाता, सोता। 

माँ को अगर अमेरिका जाना पड़ता तो माँ बहुत उदास हो जातीं।

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मैं बड़ा होता चला गया। मैं स्कूल-कॉलेज कर चुका था। मैं समझने लगा था कि जो अमेरिका जाते हैं, वो साल दो साल में मिलने आ सकते हैं, लेकिन जहाँ माँ गई थी, वहाँ से कोई कभी मिलने नहीं आता। अमेरिका हमारे देश में आने लगा था। हमारे देश में भी घर की सफाई करने वाली मशीन मिलने लगी थी। खबरे दिखाने वाले रेडियो मिलने लगे थे। बहुत से घरों में गाड़ियाँ आने लगी थीं। कई बच्चे अंग्रेजी भी बोलने लगे थे। भारत धीरे-धीरे अमेरिका बनने लगा था। एक समय ऐसा भी आ ही गया जब लोग किसी के घर जाने से पहले उसे फोन करके बताते कि वो आ रहे हैं। रेखा दीदी की अमेरिका के बारे में बतायी हर चीज अमेरिका से भारत आने लगी थीं। 

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कल मेरा एक दोस्त, जो पुलिस अफसर है, मेरे घर आया था। नाश्ते के टेबल पर वो मेरी पत्नी को बता रहा था कि कानपुर से दिल्ली ट्रेन में आते हुए उसे बहुत अफसोस हुआ। एसी फर्स्ट क्लास में चार बर्थ वाले कूपे में चारों लोग एक-दूसरे से बातें नहीं कर रहे थे। सबके सब अपने-अपने फोन पर लगे थे। कई घन्टों के उस सफर में उसे बहुत अकुलाहट हुई कि भला आदमी आदमी के सामने बैठा रहे, और एक दूसरे से परिचय भी ना करे, ये क्या बात हुई। लोग पता नहीं अपने फोन पर क्या देख कर खुद में ही मुस्कुराते रहते हैं। किसी के पास किसी से बात करने की फुर्सत नहीं। 

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मेरी पत्नी मेरे दोस्त को समझा रही थी कि इतने सारे उपकरण, जिनका अविष्कार आदमी की सुविधा के लिए हुआ है, जिनसे आदमी को आदमी के और करीब आना चाहिए था, उसने दरअसल आदमी को आदमी से दूर कर दिया है। लोग अब अकेले होते जा रहे हैं। 

मैंने कुछ कहा नहीं, सिर्फ सोचता रहा। क्या सचमुच हम अकेले होने लगे हैं। क्या रेखा दीदी के देश ने हमारे देश पर बिना किसी का खून बहाये हमला करके कब्जा कर लिया है। क्या इतिहास की किताब में मैंने जिस रक्तहीन क्रान्ति के विषय में पढ़ा था, ये वही रक्तहीन क्रान्ति है। 

अगर ऐसा है तो मुझे अपनी माँ के इस संसार से चले जाने का कोई अफसोस नहीं। मैं जानता हूँ कि मेरी माँ कभी अकेले एक बन्द कमरे में यूँ ही नहीं पड़ी रह सकती थी। उसे तो ये भी नहीं पसन्द था कि घर आने वाले को दरवाजा भी खटखटाना पड़े। अरे जिसे आना हो, वो चला आये। अगर वो होती और उसे इस तरह एक कमरे में अकेले रहना पड़ता तो वो यूँ ही मर जाती। उससे अकेलापन सहा नहीं जाता था। हमारे घर में चाहे जितने कमरे रहे हों, अगर कोई रिश्तेदार घर आया तो हम सब एक ही कमरे में जमीन पर बिस्तर लगा कर भी सोते, और देर रात तक गप करते। 

***

मुझे कभी-कभी लगता है कि बेकार ही रेखा दीदी के पिताजी ने उनकी शादी अमेरिका में कर दी थी। न वो अमेरिका जातीं, न वहाँ की खबरें यहाँ पहुँचातीं। बेशक मशीन वाला झाड़ू यहाँ नहीं आता, हर हाथ में फोन भी नहीं आता। अच्छा होता कि कुछ नहीं आता। क्योंकि कुछ नहीं आता तो कम से कम हम इतने अकेले तो नहीं पड़ते। एक घर में रह कर अलग-अलग तो नहीं हुए होते। मैं जानता हूँ, इन सबके पीछे रेखा दीदी का हाथ है। 

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मैं चाहूँ तो अपने पुलिस वाले दोस्त को बता दे सकता हूँ कि कल तुम्हें ट्रेन के एक कूपे में जिस अकेलेपन का सामना करना पड़ा, उसका असली दोषी कौन है। पर क्या फायदा? 

आगे बढ़ने और अंग्रेजी बोलने की कुछ तो कीमत चुकानी ही थी। यही वो कीमत है, जिसे कल मेरे दोस्त को ट्रेन में चुकानी पड़ी। कुछ लोग घरों में चुका रहे हैं। एक दिन सभी चुकायेंगे।

(देश मंथन, 23 मई 2015)

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