कांग्रेस ने क्यों नख-दंतविहीन बनाया मनमोहन को?

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देश मंथन डेस्क :

लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया के बीच में लगातार नये खुलासे हो रहे हैं और इस कडी में ताजा विस्फोट किया है प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू ने।

संजय बारू ने ‘द ऐक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर : द मेकिंग ऐंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’ नाम से एक किताब लिखी है, जिसने राजनीतिक गलियारों में खलबली मचा दी है। हालाँकि मूल रूप से देखें तो इस किताब ने कोई नया खुलासा नहीं किया है। बीते 10 सालों से भारतीय राजनीति के सबसे प्रत्यक्ष सच को ही उन्होंने सामने रखा है कि इस देश में यूपीए शासन में सत्ता के दो केंद्र रहे हैं। मगर पीएमओ ने फौरन बयान जारी कर दिया है कि इसमें तमाम बातें काल्पनिक हैं।

व्यंग्य-चित्रों में मनमोहन सिंह को अक्सर ही रिमोट कंट्रोल से चलने वाले रोबोट प्रधानमंत्री की तरह चित्रित किया जाता रहा। लेकिन क्या वाकई ऐसा था? संजय बारू ने अपनी किताब में लिखा है कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद तो थे, लेकिन सत्ता में नहीं। उनका नियंत्रण उनके अपने मंत्रियों पर ही नहीं था। कैबिनेट की बैठकों में भी वे ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करते थे। संजय बारू लिखते हैं कि सत्ता निहित थी कांग्रेस के कोर ग्रुप में, जिसमें शामिल थे अर्जुन सिंह, ए. के. एंटनी, प्रणब मुखर्जी और अहमद पटेल। 

इस समय प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव पुलक चटर्जी के बारे में संजय बारू ने लिखा है कि यूपीए-1 में प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत चटर्जी “नियमित रूप से लगभग प्रतिदिन सोनिया गांधी से मिलते थे। इन मुलाकातों में चटर्जी उन्हें जानकारियाँ मुहैया कराते थे और प्रधानमंत्री की ओर से स्वीकृत की जाने वाली महत्वपूर्ण फाइलों पर उनका निर्देश लेते थे।” बारू ने चटर्जी के बारे में लिखा है कि उनकी नियुक्ति सोनिया गांधी की पसंद से ही हुई थी और चटर्जी के माध्यम से सोनिया प्रधानमंत्री की ओर से स्वीकृत की जाने वाली फाइलों तक पहुँच रखती थीं।

पुस्तक के कई अंश बताते हैं कि कई महत्वपूर्ण और विवादास्पद मुद्दों पर मनमोहन सिंह की एक न चली। संजय बारू की इस किताब में यह दावा किया गया है कि मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में ए. राजा और टी. आर. बालु को नहीं लेना चाहते थे। उन्हें बालु को रोकने में तो सफलता मिली, मगर ए. राजा को मंत्री बनने से वे नहीं रोक पाये। गौरतलब है कि बाद में ए. राजा का दूरसंचार घोटाला यूपीए सरकार की बदनामी का एक बड़ा कारण बना। 

बारू ने इस किताब में यह भी कहा है कि सोनिया गांधी का जून 2004 में प्रधानमंत्री नहीं बनना अंतरात्मा की आवाज के कारण नहीं था, बल्कि यह एक राजनीतिक कदम था। 

तीन सौ पन्नों से ज्यादा वाली इस किताब से ऐसा लगता है कि 2009 के चुनाव में जीत के बाद सोनिया और मनमोहन सिंह के बीच खींचतान शुरू हो गयी। बारू लिखते हैं कि 2009 की चुनावी जीत के बाद मनमोहन सिंह ने “यह मान लेने की बड़ी गलती की कि यह जीत उनकी थी।” संभवतः उन्होंने मान लिया कि यह जीत उनके प्रदर्शन के कारण मिली और उन्हें दूसरी बार प्रधानमंत्री बनाने में सोनिया गांधी का नहीं बल्कि नियति का हाथ है। 

लेकिन कांग्रेस ने अगले कुछ हफ्तों में ही मनमोहन सिंह को शक्तिविहीन कर दिया। बारू लिखते हैं, “अगले कुछ हफ्तों में क्रमशः उन्हें नख-दंतविहीन (defanged) बना दिया गया। वे सोच रहे थे कि वे अपनी इच्छा से मंत्रियों को नियुक्त कर सकेंगे। लेकिन सोनिया ने इस उम्मीद को शुरुआत में ही खत्म कर दिया और प्रणब को उनसे सलाह लिये बगैर ही वित्त मंत्री बनाने की पेशकश कर दी।” इस किताब में बताया गया है कि उस वक्त मनमोहन सिंह की इच्छा सी. रंगराजन को वित्त मंत्री बनाने की थी। 

अपनी आलोचनाओं से खिन्न मनमोहन सिंह ने कुछ समय पहले कहा था कि मेरा योगदान क्या था, यह इतिहास बतायेगा। संजय बारू की किताब ने उनके प्रधानमंत्री बनने और बने रहने की स्थितियों और उनके योगदान पर किस्से-कहानियों के रूप में चर्चित काफी बातों को अब औपचारिक तौर पर इतिहास का अंग बना दिया है। 

वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी फेसबुक पर लिखते हैं कि “जो बात सत्ता के गलियारों में लंबे समय से आम थी, उसकी एक इनसाइडर ने पुष्टि कर दी। यह आप पर है कि इसे स्वीकार करते हैं या नहीं।”

व्यंग्यकार आलोक पुराणिक इस किताब पर चुटकी लेते हैं, “क्या खाक इंटेलिजेंस है भारतीय पत्रकारों की! प्रख्यात पत्रकार और प्रधानमंत्री के सलाहकार रहे संजय बारू की किताब एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर में कई घंटे, कई सौ रुपये गलाने के बाद भी वही समझ में आता है – प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कठपुतली प्रधानमंत्री थे। लो जी, ये बात तो सबको बिना ये किताब पढ़े ही मालूम है, इत्ते घंटे और रुपये खर्च करने का क्या फायदा!” 

(देश मंथन, 14 अप्रैल 2014)

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