सौ दिन, एक साल, दो सरकारें!

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कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार 

दिल्ली दिलचस्प संयोग देख रही है। एक सरकार के सौ दिन, दूसरी के एक साल! दिलचस्प यह कि दोनों ही सरकारें अलग-अलग राजनीतिक सुनामियाँ लेकर आयीं। बदलाव की सुनामी! जनता ने दो बिलकुल अनोखे प्रयोग किये, दो बिलकुल अलग-अलग दाँव खेले।

केन्द्र में मोदी, दिल्ली में केजरीवाल! मोदी परम्परागत राजनीति के नये माँडल की बात करनेवाले, तो केजरीवाल उस परम्परागत राजनीति को ध्वस्त कर नयी वैकल्पिक राजनीति के माडल की बात करने वाले। दोनों नयी उम्मीदों के प्रतीक, दोनों नये सपनों के सौदागर। जनता ने एक साथ दोनों को मौका दिया। कर के दिखाओ! जनता देखना चाहती है कि राजनीति का कौन-सा माँडल बेहतर है, सफल है, मोदी माँडल या केजरीवाल माँडल? या फिर दोनों ही फ्लाप हैं? या दोनों ही नये रंग-रोगन में वही पुरानी खटारा हैं, जिसे जनता अब तक मजबूरी में खींच रही थी!

मोदी और केजरीवाल : कितनी उम्मीदें पूरी हुईं?

केजरीवाल सरकार 24 मई को अपने सौ दिन पूरे कर रही है, तो मोदी सरकार 26 मई को एक साल! इन दोनों सरकारों से वाकई लोगों को बहुत बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं? क्या वे उम्मीदें पूरी हुईं? हुईं, तो कहाँ तक? केजरीवाल तो दावे करते हैं कि जनता तो उनसे बहुत खुश है और वह हर पन्द्रह दिन में जनता के बीच सर्वे किया करते हैं। और उनके मुताबिक अगर आज दिल्ली में वोट पड़ें तो उनकी आम आदमी पार्टी को 72% वोट मिल जायेंगे, जबकि पिछले चुनाव में तो 54% वोट ही मिले थे! लेकिन क्या वाकई जनता केजरीवाल से इतनी ही खुश है? उधर, दूसरी तरफ, एक बड़े मीडिया समूह के सर्वे के मुताबिक मोदी सरकार के कामकाज से देश में 60% लोग आमतौर पर खुश हैं!

मोदी : छवि का संकट!

मोदी सरकार के काम की तुलना स्वाभाविक रूप से पिछली मनमोहन सरकार से ही होगी। वैसे लोग कभी-कभी उनकी तुलना अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से भी कर लेते हैं। लेकिन केजरीवाल की तुलना किसी से नहीं हो सकती क्योंकि वह ‘आम आदमी’ की ‘वीआइपी संस्कृति विहीन’ और एक ईमानदार राजनीति का बिलकुल नया माँडल ले कर सामने आये। इसलिए वह कैसा काम कर रहे हैं, इसकी परख केवल उन्हीं के अपने माँडल पर ही की जा सकती है।

तो पहले मोदी। इसमें शक नहीं कि नरेन्द्र मोदी के काम करने और फैसले लेने की एक तेज-तर्रार शैली है, इसलिए यह सच है कि सरकार के काम में चौतरफा तेजी आयी है। भ्रष्टाचार का कोई धब्बा सरकार पर नहीं लगा है। विदेश नीति को भी मोदी ने नयी धार दी है और एक साल में 19 विदेश यात्राएँ कर अन्तरराष्ट्रीय मंच पर भारत की गम्भीर उपस्थिति दर्ज करायी है और साथ ही पूरी दुनिया पर अपनी छाप भी छोड़ी ही है। लेकिन यह भी सच है कि इस सबके बावजूद सरकार आर्थिक मोर्चे पर कुछ खास आगे नहीं बढ़ सकी। सरकार के नये आर्थिक विकास माँडल, कई प्रस्तावित विवादास्पद कानूनी संशोधनों और कुछ कारपोरेट दिग्गजों से प्रधानमन्त्री की ‘नजदीकी’ की चर्चाओं के कारण एक तरफ उसकी छवि ‘कारपोरेट तुष्टिकरण’ करनेवाली सरकार की बनी, दूसरी तरफ किसानों को किये समर्थन मूल्य के वादे से मुकर जाने, मनरेगा और दूसरी तमाम कल्याणकारी योजनाओं के बजट में कटौती कर देने और भूमि अधिग्रहण कानून पर अपने ही सहयोगी दलों के विरोध को अनदेखा कर अड़ जाने के कारण सरकार की ‘गरीब-विरोधी’ और ‘किसान-विरोधी’ छवि भी बनी। आशाओं के सुपर हाइवे पर चल कर आयी हुई किसी सरकार के लिए एक साल में ऐसी नकारात्मक छवि बन जाना चौंकाने वाली बात है, खासकर उस नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के लिए जिसने आज की राजनीति में मार्केटिंग और ब्रांडिंग का आविष्कार किया हो!

केजरीवाल : विवादों से पीछा नहीं छूटता!

और अब केजरीवाल। यह सही है कि केजरीवाल सरकार ने बिजली-पानी जैसे कुछ वादे फटाफट पूरे कर दिये, सरकार में कहीं वीआइपी संस्कृति नहीं दिखती, भ्रष्टाचार के खिलाफ हेल्पलाइन फिर शुरू हो गयी, और ‘स्वराज’ के तहत दिल्ली का बजट बनाने की कवायद मोहल्लों में जा कर जनता के बीच की जा रही है, लेकिन इन सौ दिनों में ही केजरीवाल सरकार भी सैकड़ों विवादों में घिर चुकी है। केन्द्र की बीजेपी सरकार, दिल्ली के उपराज्यपाल और दिल्ली पुलिस से केजरीवाल सरकार का रोज-रोज का टकराव तो आम बात है ही, हालाँकि इसमें केन्द्र सरकार और उसके इशारे पर उप-राज्यपाल नजीब जंग द्वारा की जा रही राजनीति की भी कम भूमिका नहीं है। इन सौ दिनों में ही पार्टी बड़ी टूट का शिकार भी हो गयी। एक मन्त्री की कथित फर्ज़ी डिग्री का विवाद काफी दिनों से अदालत में है और हैरानी है कि इस मामले पर स्थिति अब तक साफ क्यों नहीं हो पायी है? सारी डिग्रियाँ असली हैं, तो एक विज्ञापन निकाल कर जनता को बता दीजिए, बात खत्म। लेकिन वह मामला जाने क्यों अब तक गोल-गोल घूम रहा है? आम आदमी पार्टी ने जैसी स्वच्छ राजनीति का सपना दिखाया था, उस पर पिछले चुनाव के दौरान ही कई सवाल उठे थे और बाद में पार्टी में हुई टूट के दौरान कई नये विवाद सामने आये थे? केजरीवाल-विरोधी गुट का उन पर यही आरोप था कि पार्टी जिन सिद्धाँतों को लेकर बनी थी, उनकी पूरी तरह अनदेखी की जा रही है। पार्टी में टूट का चाहे भले जो कारण रहा हो, लेकिन इस आरोप में सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि ‘स्वच्छ राजनीति’ के बजाय ‘आप’ को मौका पड़ने पर ‘सुविधा की राजनीति’ के तौर-तरीके अपनाने में कोई संकोच नहीं होता।

तब की बात, अब की बात!

‘आप’ अगर परम्परागत राजनीतिक दल के तौर पर ही मैदान में उतरी होती, तो इन बातों को लेकर कोई उससे निराश नहीं होता। लेकिन अगर आप वैकल्पिक राजनीति की बात करते हैं, तो ये सवाल शिद्दत से उठेंगे ही क्योंकि शुरू में ‘आप’ ने इन्हीं बुराइयों के विरुद्ध विकल्प के तौर पर अपने को पेश किया था। ‘आप’ ने सिद्धाँतों और ईमानदारी के झंडे लहरा कर अपनी बुनियाद रखी थी। और अगर दो साल में ही वह लगातार अपनी जमीन से फिसलते हुए दिखे, तो यह उन लोगों के लिए भारी निराशा की बात होगी, जिन्होंने ‘आप’ के भीतर किसी नये वैकल्पिक राजनीतिक माँडल का सपना देखा था! आप आज अपनी बात पर नहीं टिके रह सकते तो कल किसी बात पर टिके रहेंगे, इसका क्या भरोसा?

दिलचस्प बात यह है कि यही बात नरेन्द्र मोदी पर और बीजेपी पर भी लागू होती है। आधार कार्ड, बांग्लादेश से सीमा समझौता, रिटेल में एफडीआई, पाकिस्तान नीति समेत ऐसे मु्द्दों की लम्बी सूची है, जिनका मोदी और बीजेपी ने यूपीए सरकार के दौरान मुखर विरोध किया था और सरकार की नींद हराम कर दी, संसद नहीं चलने दी, आज उन्हीं को वह पूरे दमखम से लागू कर रहे हैं। अगर तब वह गलत था, तो आज क्यों सही है? और अगर तब वह सही था, तो आप उसका विरोध क्यों कर रहे थे? क्या यह विरोध सिर्फ राजनीति के लिए था, सिर्फ तत्कालीन सरकार के खिलाफ माहौल बनाने के लिए था? अगर इसका उत्तर ‘हाँ’ है, तो यकीनन आज हमें ऐसी राजनीति नहीं चाहिए। ऐसी राजनीति देशहित में नहीं है। जनता को अब मुद्दों पर निरन्तरता चाहिए, राजनीतिक बाजीगरी नहीं।

‘न्यूज़ ट्रेडर्स’ बनाम ‘सुपारी मीडिया!’

मोदी और केजरीवाल में एक और अजीब समानता है! ‘मन की खबर’ न हो तो एक मीडिया को ‘न्यूज ट्रेडर्स’ कहता है, दूसरा उसे ‘सुपारी मीडिया’ कहता है! पता नहीं कि इन दोनों को ही मीडिया से ऐसी शिकायतें क्यों हैं? और यही मीडिया जब लगातार मनमोहन सिंह सरकार की खाल उधेड़ रहा था तो सही काम कर रहा था!

बहरहाल, एक सरकार के सौ दिन और एक सरकार के एक साल पर आज उनके कामकाज से हट कर उनकी चाल ढाल को लेकर उठे सवाल ज्यादा जरूरी हैं। खास कर इसलिए भी कि ये दोनों सरकारें उम्मीदों के उड़नखटोले लेकर आयी हैं। इनसे लोगों ने केवल काम करने की ही उम्मीदें नहीं लगायी हैं, बल्कि यह आस भी लगायी है कि ये देश और राजनीति की दशा-दिशा भी बदलें। और वह तभी होगा, जब इनकी चाल ढाल भी बदले!

(देश मंथन, 16 मई 2015)

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