आरएसएस पर नेहरू का वह अभियान, जिसे मोदी ने पलट दिया

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जवाहरलाल नेहरू

देश में आरएसएस पर 18 महीने तक प्रतिबंध रहा और इस दौरान नेहरू की सरकार में नियोजित तरीके से समाज में आरएसएस का दानवीकरण करने का अभियान चला। उस समय महज दो शब्द कहने से लोगों की सामाजिक प्रतिष्ठा चली जाती थी, सरकारी दफ्तरों में काम कर रहे अधिकारी-कर्मचारियों की नौकरी चली जाती थी, व्यापारियों पर मुकदमे हो जाते थे। वे दो शब्द थे – आरएसएस एजेंट।

1948 में गांधीजी के हत्या के बाद क्या हुआ, उसे जानना बहुत जरूरी है। अभी सलमान खुर्शीद की अयोध्या पर आयी नयी प्रकाशित किताब पर राहुल गांधी का बयान आया, जिसमें उन्होंने खुर्शीद का समर्थन किया है। लेकिन यह कोई नयी बात नहीं है।
मैं यहाँ बताना चाहता हूँ कि कैसे जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद से, और खास तौर से गांधीजी की हत्या के बाद से यह अभियान पूरे जोर-शोर से शुरू हुआ। जो भी हिंदुत्व की बात करे उसे दबाने, अपमानित करने की कोशिश, उसे दकियानूसी, पुरातनपंथी, विकास विरोधी और देशविरोधी बताने की कोशिश – यह सब कुछ आजादी के बाद से ही शुरू हो गया था।
लेकिन कांग्रेस को इसका सबसे बड़ा मौका मिला गांधीजी की हत्या के बाद। जब गांधीजी की हत्या हुई थी तो उस समय नाथूराम गोडसे का नाम सीधे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जोड़ा गया। वह कभी आरएसएस का समर्थक रहा होगा, लेकिन उसने जब यह जघन्य काम किया तो उस समय उसका आरएसएस से कोई संबंध नहीं था। लेकिन आजादी से पहले के 25 सालों से देश के एक राजनीतिक दल और राजनेताओं के एक वर्ग को एक मौके की तलाश थी और उन्हें यह मौका मिल गया।
गांधीजी की हत्या के बाद किसी नियम-कानून औऱ विधि सम्मत प्रक्रिया को अपनाये बिना आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। नियम-कानून और संविधान की बहुत दुहाई दी जाती है, पर उस कमजोर नेहरू सरकार ने आरएसएस पर यह प्रतिबंध लगाया जो मुस्लिम अल्पसंख्यकों को एक अलग देश बनाने से नहीं रोक पायी। एक ऐसे कमजोर नेतृत्व ने यह प्रतिबंध लगाया, जो इतनी सक्षम नहीं थी कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों को देश का विभाजन करने से रोक पाती।

कमजोर नेहरू क्यों नहीं रोक सके विभाजन

इतिहासकार आर. सी. मजूमदार ने लिखा है कि जिन्ना की लड़ाई भारत की आजादी की लड़ाई नहीं, बल्कि मुसलमानों की आजादी की लड़ाई थी। उन्होंने हिंसा के दम पर विभाजन कर मुसलमानों की आजादी हासिल की। गांधीजी की अहिंसा की नीति के बावजूद नग्न-वीभत्स हिंसा के आधार पर देश का विभाजन हुआ। इसमें कोई संदेह नहीं कि पाकिस्तान का बनना हिंसा की राजनीति की विजय थी।
इसके बावजूद गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। बहुत से लोगों और जानकारों के मन में उस समय यह सवाल था, जिसका जवाब आज तक नहीं मिल पाया, कि गांधीजी की हत्या के बाद बड़ी संख्या में देश में चितपावन ब्राह्मणों को आखिर क्यों मारा गया? महाराष्ट्र में उस समय चितपावन ब्राह्मणों को खोज-खोज कर मारा गया था।
देश में आरएसएस पर 18 महीने तक प्रतिबंध रहा और इस दौरान नेहरू की सरकार में नियोजित तरीके से समाज में आरएसएस का दानवीकरण करने का अभियान चला। उस समय महज दो शब्द कहने से लोगों की सामाजिक प्रतिष्ठा चली जाती थी, सरकारी दफ्तरों में काम कर रहे अधिकारी-कर्मचारियों की नौकरी चली जाती थी, व्यापारियों पर मुकदमे हो जाते थे। वे दो शब्द थे – आरएसएस एजेंट।
किसी से दुश्मनी निकालनी हो तो बस सरकार तक ये दो शब्द पहुँचा देना काफी था कि फलाँ व्यक्ति आरएसएस एजेंट है। शिक्षा क्षेत्र (एकेडेमिक्स) में कोई अच्छा काम कर रहा था तो उसे आगे बढ़ने से रोकने और उसके काम की गरिमा को गिराने के लिए आरएसएस का एजेंट बता दिया जाता था। पूरे देश में आरएसएस के दानवीकरण का यह अभियान इसलिए चला कि वह हिंदुओं की एकता की बात कर रहा था।
उस समय केंद्रीय गृह मंत्रालय से यह परिपत्र जारी किया गया था कि ऐसे लोगों की पहचान की जाये। इसके बाद दिल्ली के चीफ पुलिस कमिश्नर ने एक सूची जारी की थी कि इन लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जानी है या इन पर संदेह है कि वे आरएसएस के आदमी हैं। उस सूची में सरकारी कर्मचारियों के नाम भी थे। इसका असर यह हुआ कि देश भर में सरकारी कर्मचारी बुरी तरह से डर गये। आरएसएस का नाम लेना भी खौफ का पर्याय बन गया।

हिंदुओं की बात करने वालों की नियोजित प्रताड़ना

इसका कैसा असर हुआ और सरकार ने किस तरह से काम किया, यह बस एक उदाहरण से समझा जा सकता है। यह बात है दिसंबर 1948 की। सरकार के नागरिक विमानन (सिविल एविएशन) के महानिदेशालय में एक स्टेनोग्राफर थे के. वी. एस. मणियन। एक दिन वे अपने घर में बैठ कर शार्टहैंड का अभ्यास कर रहे थे। उन्हें कुछ शोर सुनायी दिया। वे घर से बाहर निकलते, इससे पहले उनकी बेटी आयी जिसकी आँखों में आँसू थे। वे यह देख कर घबरा गये। बाहर निकले तो देखा कि आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे थे।
उन्होंने वहाँ मौजूद पुलिस अधिकारी से कहा कि आप लोगों को आँसू गैस छोड़ते समय यह ध्यान रखना चाहिए था कि यहाँ बच्चे खेल रहे हैं। ऐसा कहने भर से पुलिस अधिकारी उन्हें थाने ले गया और उन पर मुकदमा दर्ज हो गया कि उन्होंने सरकारी काम में बाधा पहुँचाने की कोशिश की।
अगले दिन जब उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो उन्होंने सारी बात बतायी। दरअसल वहाँ आँसू गैस के गोले इसलिए छोड़े जा रहे थे कि वहाँ संघ के लोगों का सत्याग्रह और प्रदर्शन चल रहा था। कहा गया कि मणियन भी उसमें शामिल थे। उन्होंने कहा कि इससे मेरा कोई मतलब नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर सरकार को ऐसा लगता है कि मैंने सरकारी काम में बाधा पहुँचायी तो मैं माफी माँगता हूँ। इसके बाद मजिस्ट्रेट ने चेतावनी देकर उन्हें छोड़ दिया। यहाँ बात खत्म हो जानी चाहिए थी।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं। के. वी. एस. मणियन की तकलीफ का दौर अदालत से बरी होने के बाद शुरू हुआ। दिल्ली के चीफ पुलिस कमिश्नर ने 28 दिसंबर 1948 को ऐसे सरकारी कर्मचारियों की एक सूची जारी की, जिनके बारे में कहा गया कि उन्होंने संघ के किसी-न-किसी कार्यक्रम, प्रदर्शन, धरने वगैरह में भाग लिया था। उस सूची में के. वी. एस. मणियन का भी नाम आ गया।
मणियन इस मामले में अदालत से बरी हो चुके थे। सरकारी कामकाज में बाधा डालने के आरोप पर माफी माँग चुके थे। लेकिन फिर भी उस सूची में उनका नाम आ गया। अब आप देखिए कि देश की नौकरशाही कैसे काम करती है। दुर्भाग्य से उस मंत्रालय का भी नाम शामिल है इसमें, जिसके मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल थे। पर नौकरशाही तो आखिर नौकरशाही ही होती है और वह अपने ढंग से काम करती है।
नागरिक विमानन महानिदेशालय से कहा गया कि अदालत ने उन्हें छोड़ने का जो निर्णय किया है, वह दरअसल सजा है लेकिन वह सजा काफी नहीं है। इनका अपराध बहुत बड़ा है, इन्होंने प्रदर्शन में भाग लिया था। उन्हें नौकरी से बर्खास्त करने का आदेश दे दिया गया। फिर उसके बाद मणियन की नौकरी की बर्खास्तगी को लेकर नागरिक विमानन महानिदेशालय, गृह मंत्रालय, आईबी और संचार मंत्रालय के बीच फाइल चलने लगी, पत्र-व्यवहार का लंबा दौर चला।
इस पत्र-व्यवहार के चलते मणियन को भरोसा हुआ कि अदालत के फैसले को मान लिया जायेगा। मगर ऐसा हुआ नहीं। उन्हें 3 मार्च 1949 को नौकरी से बर्खास्त किये जाने का पत्र महानिदेशालय से मिल गया। मणियन के लिए यह बहुत बड़ा धक्का था। उनके सामने कोई रास्ता नहीं था, सिवाय इसके कि फिर से अपील करते कि मेरी गलती नहीं है, मैं कहीं से उस प्रदर्शन में शामिल नहीं था। लेकिन उनकी अपील रद्द हो गयी। तब उन्होंने सीधे गृह मंत्री को चिट्ठी लिखी।
गृह मंत्री से अपील करने का नतीजा यह हुआ कि और कड़ाई से जाँच शुरू हुई और गृह मंत्रालय ने संचार मंत्रालय को लिखा कि अदालत ने इनको हल्की सजा दी, इसका यह मतलब नहीं है कि ये दोषी नहीं हैं। इनकी उचित सजा सेवा से बर्खास्तगी ही है। अंत में डिप्टी कमिश्नर आर. दयाल ने गृह मंत्रालय को एक चिट्ठी लिखी कि खुले प्रदर्शन में भाग लेकर इन्होंने सरकार के प्रति निष्ठा न होना साबित कर दिया है।
मणियन को 26 मई 1949 को इस संबंध में अंतिम पत्र मिला, जिसमें कहा गया कि यह साबित हो चुका है कि मणियन संघ के प्रदर्शन में शामिल थे, इसलिए नौकरी से उनकी बर्खास्तगी पर कोई पुनर्विचार नहीं हो सकता। के. वी. एस. मणियन उस समय अकेले ऐसे सरकारी कर्मचारी नहीं थे। हजारों की संख्या में ऐसे लोग थे।

संघ पर कलंक लगाने का अभियान

खैर, यह तो आरएसएस के प्रतिबंधित संगठन होने के समय की बात है। मगर आरएसएस से प्रतिबंध हटने के बाद भी इसे एक कलंक के रूप में इस्तेमाल किया गया। अगर आप आरएसएस से जुड़े हैं, तो आप समाज और देश के विरोध में हैं, आप सांप्रदायिक हैं। यह अभियान नेहरू के समय से लेकर आज तक जारी है।
यह अभियान है समाज सेवा और व्यक्ति निर्माण का काम करने वाले एक बड़े संगठन की साख गिराने का। इसे बदनाम करने का अभियान इसलिए चलाया जा रहा है क्योंकि वह हिंदुओं की बात करता है। अगर आरएसएस हिंदुओं की बात नहीं कर रहा होता, तो न उस पर प्रतिबंध लगता, न ये कलंक बनाया जाता कि अगर आप संघ के हैं स्वयंसेवक रहे हैं, या संघ से किसी तरह से जुड़े रहे हैं तो इसका मतलब है कि आपको संदेह की नजर से देखा जाना चाहिए।
नेहरू के समय से बड़े जतन से दमन करके संघ के खिलाफ जो वातावरण बनाया गया था, नरेंद्र मोदी ने उसे हटा दिया है। नरेंद्र मोदी ने पिछले सात सालों में सिर्फ इतना किया है कि अगर आप संघ से जुड़े हैं तो यह शर्म की नहीं, बल्कि गर्व की बात है।
कांग्रेस ने संघ के खिलाफ जो अभियान चलाया था, उसका सबसे ज्यादा फायदा वामपंथियों ने उठाया था। उन्होंने भारत में पूरे शिक्षा क्षेत्र (एकेडेमिक्स) और बौद्धिक विमर्श पर कब्जा कर लिया। जिसका विरोध करना हो, उसे संघी बता कर मुख्यधारा से बाहर कर दिया। अब मोदी ने क्या किया। मोदी ने सिर्फ इतना किया कि संघी बताये जाने का, संघी तमगा चिपका दिये जाने का डर निकाल दिया है।
उसका असर देखिए। चाहे इतिहास की बात हो या दूसरे क्षेत्र हों, उसमें किस-किस तरह के लोग निकल कर सामने आ रहे हैं। किस तरह से पिछले 70 साल में बोगस इतिहास लेखन हुआ, किस तरह चीजों को छिपाया गया, भारत के लिए गर्व करने लायक बातों को दबाया गया, हम पर आक्रमण और शासन करने और यातना देने वालों की गौरव-गाथा पेश की गयी। अब वह सब बदल रहा है।
1947 से जो दमन-चक्र शुरू हुआ था, उसका पहिया अब उल्टा घूमने लगा है। यह उल्टा घूमने वाला पहिया किसी का दमन नहीं कर रहा है। यह सच्चाई को सामने ला रहा है। घटनाओं को उनके वास्तविक संदर्भ में पेश किया जा रहा है। इसलिए देश बदल रहा है। बहुत बड़ा परिवर्तन हो रहा है। इसका असर बहुत-से लोगों को अभी उस तरह से शायद समझ में न आये। कुछ दशकों के बाद पता चलेगा कि 2014 के बाद होने वाले परिवर्तन ने किस तरह से देश को बदला, और अच्छे के लिए बदला।
(प्रदीप सिंह के यूट्यूब वीडियो का लेखांतरण।)
(देश मंथन, 15 नवंबर 2021)

देखें देश मंथन पर प्रदीप सिंह के अन्य आलेख।

 

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