उम्मीदों का काँस्य

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार  :

वैधानिक चेतावनी-यह व्यंग्य नहीं है

साक्षी मलिक के काँस्य पर हम झूमते-गाते भारतीय बहुत रोचक रुपक गढ़ते हैं। 127 करोड़ का भारत, एक काँस्य के लिए इस तरह से तरसा कि साक्षी मलिक के काँस्य को बहुत ही बड़ी उपलब्धि मानने लगा। दरअसल यह साक्षी मलिक की निजी उपलब्धि है, निजी उपलब्धि है कि इस सिस्टम में काम करके वह इतना हासिल कर सकी।

इस देश का मिजाज अभी ऐसा नहीं बना कि वह किसी प्रतिभा को संस्थागत तौर पर प्रोत्साहित करके आगे बढ़ाये। इस सिस्टम के बावजूद जो आगे बढ़ ले, तो इसकी वजह खालिस उसकी जिजीविषा ही है।

इंडियन आम तौर पर व्यक्तिगत तौर पर बतौर व्यक्ति शानदार परफारमेंस दे देते हैं, पर बेहतरीन टीम, बेहतरीन संस्थान की सामूहिक परफारमेंस शानदार हो, ऐसा लगातार कम देखने को मिलता है। ओलंपिक के पदक संस्थागत सफलताओं के नतीजे होते हैं। बच्चों को बहुत कम उम्र में प्रशिक्षित करके उन्हे सारी सुख सुविधाएँ दे कर लगातार आगे बढ़ाने के संस्थागत इंतजाम चीन में हैं, अमेरिका में हैं। वैसा मिजाज समाज ने पैदा किया है।

हम इंडियन आम तौर पर हीरो पूजा में यकीन करते हैं, अच्छे संस्थान, अच्छी टीम बना पाना हमारे मिजाज में नहीं है। सरकारी क्षेत्र में अच्छे संस्थान बना पाना और भी मुश्किल काम है। अच्छे बना लें, तो उन्हे अच्छे बनाये रखना उससे भी मुश्किल काम है। इसलिए श्रेष्ठ संस्थानों के अभाव में कोई एकाध हीरो हमें गर्व का मौका दे देता है। इस मुल्क को रजनीकाँत इसलिए प्रिय लगते हैं, हम एक साक्षी में रजनीकाँत देख लेने वाले लोग हैं। उसके पीछे सड़ते सिस्टम, बदबू मारते खेल प्रशासन की कालिख साक्षी जैसे किसी खिलाड़ी की चमक में दब जाती है।

खैर, जीत की बधाई-शुभकामनाएँ साक्षी को, इसमें उसकी मेहनत, उसकी जिजीविषा की भूमिका अधिक है। खेल प्रशासन, ऐसे खेल सिस्टम के बावजूद वह पदक ले आयी, यह उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि है। अभी सौ-दो सौ साल लगेंगे इस मुल्क में, जब ओलंपिक के पदक सु्व्यवस्थित खेल प्रशासन और खेल संगठनों के नतीजे में आयेंगे।

(देश मंथन 19 अगस्त 2016)

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