घाटी दे दें? पर किसको दे दें?

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प्रीत के. एस. बेदी, सामाजिक टिप्पणीकार : 

पहले जरा नैतिक प्रश्न की बात कर लेते हैं। विभाजन के बारे में कुछ भी नैतिक नहीं था। दोनों ओर से लाखों लोग मारे गये और इस पूरी कवायद के बाद एक ऐसा देश बना जिसके दो हिस्से थे।

(चित्र : विद्युत प्रकाश मौर्य)

और, वे दोनों हिस्से बीच में एक विरोधी भूखंड के चलते एक दूसरे से 3500 किलोमीटर की दूरी पर थे। और सोचें जरा… यह सब होने के बाद भी भारत के एक तिहाई मुसलमान भारत में ही बने रहे।

अब कानूनी पहलू देखते हैं। स्वतंत्र रजवाड़ों को यह चुनने का विकल्प दिया गया था कि वे किस तरफ जायेंगे। चाहे जिस भी परिस्थिति में, जम्मू एवं कश्मीर के तत्कालीन राजा ने भारत को चुना। उस राज्य को भारत के लिए जम्मू और पाकिस्तान के लिए कश्मीर के रूप में बाँटने का विकल्प कभी टेबल पर था ही नहीं। बस।

कश्मीर दे देना एक शालीन, करुण विलाप करते हृदय के उदारवादी कार्य जैसा लग सकता है, लेकिन इस सोच पर तीन प्रश्न हैं :

1. घाटी दे दें? पर किसको दे दें? बस एक सुबह वहाँ से निकल आयें? और पूरे देश में दंगे भड़का दें, विभाजन जैसे हालात पैदा हों और हिंदू-मुसलमान भिड़ जायें? क्या कश्मीर से बाहर जो मुसलमान हैं, उनकी कोई परवाह करने की जरूरत नहीं है?

2. पाकिस्तान को जम्मू तक चढ़ आने दें और तालिबान, आईएसआईएस एवं ऐसे ही अन्य संगठनों को हमारे दरवाजे पर खुले हाथों से ज्यादा आतंकवाद फैलाने की छूट दे दें?

3. और, यह अध्याय खोलें तो केवल कश्मीर पर क्यों रुकें? क्या सिर्फ इसलिए वहाँ हत्याएँ हो रही हैं? खालिस्तानियों को यह बताना है कि अगर वे फिर से हत्याएँ शुरू कर दें तो उनके सामने अब भी मौका है?

भारत और पाकिस्तान का बनना हमेशा से ही एक खोट भरा समाधान था। फिर भी एक समाधान हो गया। करुण हृदय से विलाप करने वाले महान भारतीय उदारवादी, उनके बेवकूफ प्रशंसक और फेसबुक पर टहटहाने वाले नौसिखिए चाहे जो भी कहते रहें, मगर सीमाओं को फिर से खींचना राजनीतिक रूप से असंभव होने के साथ-साथ बेहद बेवकूफी भरा भी है। 

(देश मंथन, 11 जुलाई 2016)

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