क्या ईश-निंदा है आरक्षण पर विचार-विमर्श?

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राजीव रंजन झा : 

जब तक भेदभाव है, तब तक आरक्षण खत्म नहीं होगा। यह बात दलित नेत्री मायावती भी कहती हैं, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के तमाम नेता भी कहते हैं। संघ ने भी यही कहा है, हालाँकि संघ के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य की एक टिप्पणी विवाद का केंद्र बनी है।

हालाँकि इस भेदभाव के वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) को जरा आज के संदर्भों में समझने की जरूरत है। इस भेदभाव का मूल आधार ब्राह्मणवाद बताया जाता है। आम धारणा है कि सवर्ण जातियाँ पिछली और दलित जातियों का शोषण करती हैं। करती हैं, जी हाँ, आरोप वर्तमान काल का है। क्योंकि सब यही कह रहे हैं कि “जब तक भेदभाव जारी रहेगा…”, यानी भेदभाव बना हुआ है और उस भेदभाव पर आधारित शोषण जारी है। केवल अतीत के पापों का भुगतान नहीं है आरक्षण, यह वर्तमान के पापों की भी सजा है। 

अब जरा कुछ बातों पर विचार किया जाये। जो लोग आरक्षण से जुड़े किसी पहलू पर विचार को ईश-निंदा मान चुके हैं, उनसे माफी माँग लेता हूँ। वैसे भी, अपने कुलनाम की वजह से मैं पहले से उनकी नजर में पापी माना जा सकता हूँ। खैर, जो लोग विचार-विमर्श को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का जरूरी हिस्सा मानते हैं, उनके लिए बात को आगे बढ़ाता हूँ। 

बिहार में ढाई दशक से वही दल सत्ता में हैं, जिनका वोटबैंक आरक्षण से लाभान्वित जातियाँ मानी जाती हैं। कुछ यही हाल उत्तर प्रदेश का है। इन दोनों राज्यों में ढाई दशकों में भेदभाव खत्म क्यों नहीं हुआ? क्या इस भेदभाव को खत्म करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी नहीं है? 

बिहार और उत्तर प्रदेश में तो ढाई दशक हुए हैं आरक्षित वोटबैंक वालों की सरकारें चलते हुए, पर तमिलनाडु की राजनीति पर तो लगभग पाँच दशक से द्रविड़ दलों का ही कब्जा है। तमिलनाडु में वर्ष 1967 में पहली बार द्रमुक की सरकार बनी थी। उसके बाद से लगातार द्रविड़ दलों की ही सरकारें बनती आयी हैं। क्या तमिलनाडु भेदभाव-मुक्त हो चुका है? या फिर इस राज्य में देश में सबसे ज्यादा आरक्षण होने के आधार पर यह कहा जाये कि वहाँ सबसे ज्यादा भेदभाव जारी है?

क्या बिहार और उत्तर प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक में सरकारों को चलाने वाले दल सामाजिक भेदभाव घटाने में अपनी विफलता स्वीकार करते हैं? या फिर उनका दावा है कि भेदभाव पहले से कम हुआ है? अगर भेदभाव पहले से कम हो रहा है तो क्या कोई अध्ययन हुआ है कि भेदभाव घटने की गति कितनी है और उस गति से कब तक यह भेदभाव खत्म होने की उम्मीद की जा सकती है?

भेदभाव के सामाजिक वर्णक्रम पर ध्यान देने की भी जरूरत है। क्या यह सवर्ण बनाम अवर्ण का ही भेदभाव है? क्या ऐसा कोई अध्ययन हुआ है कि पिछले एक दशक में (या अपनी सुविधा से लिया गया हाल का कोई भी कालखंड हो) दलित उत्पीड़न की कितनी घटनाओं में सवर्ण शामिल रहे हैं, उनमें से कितनी घटनाओं में ब्राह्मण आरोपित हुए हैं? जब यह भेदभाव ब्राह्मणवाद के नाम से जाना जाता है, तो सबसे ज्यादा उत्पीड़न ब्राह्मण ही करते होंगे ना?

या फिर अगर समाचार-पत्रों में नियमित रूप से आने वाली सुर्खियों को आधार बनायें तो क्या यह कहना गलत होगा कि दलित उत्पीड़न की काफी घटनाओं में ओबीसी जातियों के नाम आने लगे हैं? यानी एक आरक्षित वर्ग दूसरे आरक्षित वर्ग का उत्पीड़न कर रहा है। मगर दोनों ही वर्गों को मिलने वाले आरक्षण का समान आधार क्या है? सामाजिक भेदभाव!

अगर ओबीसी और दलित, दोनों ही ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक राजनीतिक शक्ति बन चुके हैं तो उनके बीच क्यों भेदभाव बना हुआ है? क्या आज भी पंडे-पुरोहित ही दोनों को आपस में भेद रखने के लिए कह रहे हैं? कह भी रहे हैं तो वे मान क्यों रहे हैं? वे तो ब्राह्मणवाद के विरुद्ध संगठित हो चुके हैं ना?

और ओबीसी बनाम दलित की बात बाद में, क्या दलित राजनीति करने वाले दल या सामाजिक विश्लेषण करने वाले समाज-वैज्ञानिक यह दावा कर सकते हैं कि अनुसूचित जातियों में गिनी जानी वाली सैंकड़ों जातियों के बीच कोई भेदभाव नहीं है? क्या इन जातियों के आपसी भेदभाव के लिए ब्राह्मण ही जिम्मेदार रहे हैं? किस वेद-पुराण में बताया गया है कि पासी ऊँची जाति है या कहार? चलिए, इस भेदभाव के लिए ब्राह्मणवाद को ही जिम्मेदार मान लेते हैं। लेकिन एससी-एसटी आरक्षण तो आजादी के तुरंत बाद लागू कर दिया गया था। आरक्षण के महामंत्र से छह-सात दशक में केवल इन विभिन्न अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बीच का आपसी भेदभाव क्यों नहीं खत्म किया जा सका? 

चलिए, सवर्ण कही जानी वाली जातियाँ तो हजारों सालों की गुनहगार हैं, जो न पहले सुधरी हैं न भविष्य में सुधरने की उम्मीद है। लेकिन बाकी जातियों के राजनीतिक और सामाजिक नेता कुछ ऐसा क्यों नहीं करते जिससे उनके बीच का आपसी जातिगत भेदभाव खत्म हो जाये? क्यों यादव बनाम कुर्मी की लड़ाई जारी रहे? दोनों को मिल कर ब्राह्मणवाद से लड़ना है। अभी-अभी जदयू नेता शरद यादव को कहते सुना कि भारत आरक्षित जातियों का देश है, जिनकी आबादी 80% है। कुछ लोग बहुजन की गिनती 90% से 95% तक भी करते हैं। यह बहुसंख्या तय कर ले कि उनके बीच अब कोई भेदभाव नहीं रहने वाला, तो मुट्ठी भर सवर्णों की क्या हैसियत कि आगे कोई सामाजिक भेदभाव जारी रह सके? आरक्षण हटाने या उस पर पुनर्विचार की बात छोड़िए, पहले इसी शुभ काम का बीड़ा उठा लीजिए तो देश-समाज बदल जायेगा।

(देश मंथन, 24 जनवरी 2017)

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