भाजपा के राज-परिवार और शहजादे!

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गृहमंत्री राजनाथ सिंह और उनके पुत्र पंकज सिंह

राजीव रंजन झा : 

भारतीय जनता पार्टी अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल कांग्रेस को सबसे ज्यादा इसी बात पर चिढ़ाती है कि उसमें एक राज-परिवार है, एक रानी हैं, एक युवराज हैं और पूरी कांग्रेस इस परिवार से बाहर कुछ देख ही नहीं सकती। 

(केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह, उनके पुत्र पंकज सिंह)

लोकसभा चुनाव में तमाम रैलियों में नरेंद्र मोदी एक ही शब्द सबसे ज्यादा रस लेकर बोलते थे – शहजादे! अब भाजपा की बारी है कि वह कुछ देर आइने के सामने खड़ी हो। खैर, लोकसभा चुनाव अभियान को तो ढाई साल से ज्यादा बीत गये। पर अभी-अभी 7 जनवरी को भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दल के नेताओं को क्या नसीहत दी थी? यही न कि परिवार के सदस्यों के लिए वे टिकट का दबाव न बनायें। तब यही कहा था न कि पार्टी में किसी भी तरह के भाई-भतीजावाद को बढ़ावा नहीं दिया जायेगा। मगर पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में दिये गये भाजपा टिकटों के बाद कैसी तस्वीर उभर रही है? भाजपा के शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी खुद तो वंशवाद या परिवारवाद से बिल्कुल दूर हैं, यह बात उनके विरोधी भी स्वीकार करेंगे। लेकिन शीर्ष के ठीक बाद, दूसरी कतार के नेताओं के बारे में क्या अब यही बात कही जा सकती है? 

गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बड़े बेटे पंकज सिंह नोएडा से उम्मीदवार बन गये हैं। कल्याण सिंह की बहू प्रेमलता सिंह को अतरौली से प्रत्याशी बना दिया गया है और उनके पोते भी पहले ही टिकट पा चुके हैं। लालजी टंडन के बेटे गोपाल टंडन को पूर्वी लखनऊ का प्रत्याशी बनाया गया है। सांसद हुकुम सिंह की बेटी मृगांगिका सिंह मुजफ्फरनगर जिले के कैराना उम्मीदवार बनी हैं। बृजभूषण शरण सिंह के बेटे प्रतीक शरण गोंडा से टिकट पा चुके हैं। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बी. सी. खंडूरी की बेटी ऋतु खंडुरी यमकेश्वर से चुनाव लड़ रही हैं। 

चुनाव से ठीक पहले दल-बदल करने वालों को भी भाजपा ने जम कर उपकृत किया है और उस उपकार में भी ठीक-ठाक वंशवाद चला है। उत्तराखंड में विजय बहुगुणा के बेटे सौरभ बहुगुणा को सितारगंज से टिकट दिया गया। यशपाल आर्य और उनके बेटे संजीव आर्य दोनों को टिकट मिला है, जबकि दोनों बस अभी-अभी भाजपा में शामिल हुए हैं। यानी सौदा ही इस बात पर हुआ जान पड़ता है कि टिकट मिलेगा तो पार्टी में आयेंगे।

यह कोई संपूर्ण सूची नहीं है, बल्कि हाल में चर्चित रहे कुछ नामों का उल्लेख भर है। तलाशने जायेंगे तो जयंत सिन्हा को भी पहले टिकट मिलने और फिर मंत्रिमंडल में जगह मिलने का मुख्य कारण यही है कि यशवंत सिन्हा उनके पिता हैं। कहने का मतलब यह नहीं कि वे इस जिम्मेदारी को सँभालने के योग्य नहीं हैं। पर जिम्मेदारी मिलने का मौका इसीलिए मिला कि वे पूर्व वित्त मंत्री के पुत्र हैं।

भाजपा जैसे संगठन और कार्यकर्ता आधारित दल का भी यह हाल देख कर यही कहा जा सकता है कि भारत में लोकतंत्र ने नया रूप ले लिया है। यह चुनाव आधारित सामंतवाद में तब्दील हो रहा है, जिसमें लोग कुछ चुनिंदा सामंत परिवारों के बीच में से अपना अगला शासक चुनते हैं। यह किसी दल विशेष पर टिप्पणी नहीं है, क्योंकि अब शायद ही कोई दल वंशवाद के विरोध में है। भाजपा में शीर्ष स्तर पर वंशवाद तो नहीं पनपा, लेकिन सामंतशाही जरूर जड़ें जमा रही है। हर जगह ऐसे सामंती परिवार हो गये हैं, जो अपनी जागीरदारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलाना चाहते हैं।

भाजपा ने वंशवाद को नेतृत्व की दूसरी कतार तक अपना लिया है। मतलब पानी गले तक आ गया है, केवल सिर ही पानी से ऊपर रह गया है। हालाँकि इस आलोचना पर भाजपा के लोग चिढ़ते हैं और पलट कर पूछते हैं कि क्या नेताओं के परिजनों और बेटे-बेटियों को राजनीति में आने का अधिकार नहीं है? लेकिन राजनीति में आना और सीधे अपने परिवार की जागीरदारी सँभालना दो अलग बाते हैं। पंकजा मुंडे जब एक दुर्घटना में गोपीनाथ मुंडे की मौत के बाद राजनीति में आयीं तो वे सीधे उस हैसियत का दावा कर रही थीं जो गोपीनाथ मुंडे की थी। गोपीनाथ मुंडे अपने पीछे कोई जागीर छोड़ गये क्या, जो पारिवारिक मिल्कियत की तरह पंकजा को सौंपी जानी थी? केवल पंकजा मुंडे या पंकज सिंह की बात नहीं है, हर राज्य में ऐसे उदाहरण दिख रहे हैं। 

निश्चित रूप से आज हम जैसा लोकतंत्र देख रहे हैं, उसके लिए जनता किसी और को कसूरवार नहीं ठहरा सकती। राजतंत्र के समय कहा जाता था कि यथा राजा तथा प्रजा। आज लोकतंत्र में लोग खुद अपना राजा चुनते हैं। इसलिए आज तो यही सच है कि यथा प्रजा तथा राजा। इसमें एक ठेठ भारतीय मानसिकता है। हमें लोकतंत्र के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा, इसलिए लोग एक मत की कीमत नहीं जान पाये। हम आज भी अपना प्रतिनिधि नहीं, अपना राजा चुनते हैं। प्रतिनिधि चुनते तो अपने आसपास से किसी अपने जैसे को चुनते। राजा तो राजपरिवारों से ही आयेंगे ना!

अगर गांधी परिवार एक राज-परिवार बन गया है तो राजनाथ परिवार क्या है, मुंडे परिवार क्या है, कल्याण सिंह का परिवार क्या है, महाजन परिवार क्या है? कांग्रेस और भाजपा से बाहर अन्य दलों की स्थिति तो और भी बदतर है, जिनमें से ज्यादातर दल एबीसी संस एंड डॉटर्स प्रा. लि. में तब्दील हो चुके हैं।

अभी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में मचा संग्राम राजनीतिक था या पारिवारिक, इस बात पर विश्लेषक कभी नतीजे पर नहीं पहुँच सकते, क्योंकि यहाँ तो पार्टी ही परिवार है और परिवार ही पार्टी है। बिहार में विधानसभा चुनाव अभियान शुरू होने से भी पहले लालू प्रसाद यादव ने बता दिया था कि विरासत बेटे को ही मिलती है। तो जाहिर है कि राजद ने अपने नेतृत्व का मसला मतदाताओं के सामने साफ कर दिया था। इसके बाद भी अगर मतदाताओं ने उनको राज्य में सबसे ज्यादा सीटें दीं तो मान लेना चाहिए कि उनके मतदाताओं के लिए लालू यादव का परिवारवाद कोई मुद्दा नहीं है। तेजस्वी या तेज प्रताप की शिक्षा और काबिलियत भी उनके लिए कोई मुद्दा नहीं है। इसलिए आप इन सवालों को चाहे जितना भी उठा लें, लालू प्रसाद यादव के मतदाताओं को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। उल्टे वे लालू प्रसाद यादव के साथ और मजबूती से खड़े होते हैं। 

आज ही जब यह हालत है तो जरा अब से 10-20 साल बाद की स्थिति की कल्पना करें। तब शायद लोकसभा और विधानसभाओं में लगभग सारे सांसद-विधायक ऐसे होंगे, जिनके माता या पिता भी राजनेता रहे हों। ऐसे सदन को लोकसभा या विधानसभा कहा जायेगा या सामंत सभा, जिसमें लगभग हर सदस्य किसी राज परिवार या सामंत परिवार का प्रतिनिधित्व कर रहा होगा न कि देश की आम जनता का? सामंतशाही भला और क्या थी? राजशाही के ठीक नीचे पलने वाली व्यवस्था थी सामंतशाही। जिस तरह केंद्रीय स्तर पर एक राज-परिवार होता था, उसी तरह क्षेत्रीय स्तर पर ढेर सारे सामंत होते थे और उनकी भी पुस्तैनी विरासत एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक चलती थी। क्या हम उसी तरह ओर नहीं बढ़ रहे हैं?

इन हालात में तमाम राजनीतिक विचारकों और विश्लेषकों के सामने यह विनम्र प्रश्न रखता हूँ कि वे कांग्रेस, भाजपा और शेष दलों के वंशवाद में सेक्युलर, सांप्रदायिक और सामाजिक न्याय के चश्मों से दिखने वाले अंतर को समझायें!

(देश मंथन, 25 जनवरी 2017)

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