भाजपा के असली निर्णायक मंडल से अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी का निष्कासन किस बात का सूचक है? भाजपा के कार्यकर्ता और आम जनता दोनों ही असमंजस में हैं।
प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनने के बावजूद बीजेपी के अन्दर परिवर्तन का दौर थमा नहीं है। वैसे पार्टी स्तर पर इस तरह के परिवर्तन की शुरुआत तो नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते राष्ट्रीय राजनीति में दखल के साथ ही शुरू हो गयी थी, जो अब उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद साफ दिखने लगी है।
चार राज्यों में हुए उपचुनावों में भाजपा की वैसी दुर्गति तो नहीं हुई, जैसी उत्तराखंड में हुई थी याने कोई राज्य ऐसा नहीं है, जहाँ भाजपा या उसकी सहयोगी पार्टी जीती न हो।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सरकारी कार्यक्रमों में आजकल बड़ा मजेदार नजारा देखने को मिलता है। वह चाहे जहाँ जाये, चाहे हरियाणा, महाराष्ट्र या झारखंड वहाँ के मुख्यमंत्रियों को तो शामिल होना ही पड़ता है।
वक्त बदल चुका है। वाजपेयी के दौर में 22 जनवरी 2004 को दिल्ली के नॉर्थब्लाक तक हुर्रियत नेता पहुँचे थे और डिप्टी पीएम लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात की थी। मनमोहन सिंह के दौर में हुर्रियत नेताओं को पाकिस्तान जाने का वीजा दिया गया और अमन सेतु से उरी के रास्ते मुजफ्फराबाद के लिए अलगाववादी निकल पड़े थे।
नियंत्रण रेखा (एलओसी) पार कर 40 आतंकवादी जम्मू कश्मीर में घुसे... पिछले कुछ दिनों मे 50 बार गोलीबारी हुई है, 20 जवान घायल हुए हैं और 4 जवानों ने जान गँवायी है।
बिहार विधानसभा चुनाव से पूर्व महागठबंधन में नया घमासान शुरू हो गया है। महागठबंधन में राजद नेता तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में पेश किये जाने पर महागठबंधन के दो सहयोगी दलों - राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) ने आवाज उठायी है।
बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एनडीए में जबरदस्त रार मची हुई है। बिहार में एनडीए में कुल चार दल भाजपा, जदयू, लोजपा और हम (हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा) हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन में सीटों के बंटवारे पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। दरअसल पिछले चुनाव में महागठबंधन का हिस्सा बन कर लड़ने वाली जदयू के गठबंधन से निकल जाने के बाद अब शेष बड़े दल राजद और कांग्रेस इस बार ज्यादा-से-ज्यादा सीटें अपने पास रखने के पक्ष में हैं।
कोरोना की श्रृंखला तोड़ने की लड़ाई हम उसी दिन हार गये थे, जब दिल्ली में हजारों-लाखों मजदूरों की भीड़ को उत्तर प्रदेश की बस चलने के नाम पर आनंद विहार में जुटा दिया गया था।