दिल्ली में दलित वोटर होंगे निर्णायक

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संदीप त्रिपाठी : दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस बार दलित वोट निर्णायक भूमिका में होंगे। पूरी दिल्ली में एक वर्ग के रूप में सबसे ज्यादा संख्या दलितों की ही है। दिल्ली के कुल 1,30,85,251 मतदाताओं में 17 फीसदी दलित हैं। कुल 70 विधानसभा क्षेत्रों में से 12 तो सुरक्षित हैं ही, आठ अन्य क्षेत्रों में भी दलित प्रभावी संख्या में हैं।

फिलहाल दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा की 12 सुरक्षित सीटों में से पिछले चुनाव में 9 सीटें आप ने जीती थीं। भाजपा को दो सीटें बवाना और गोकुलपुर की मिली थीं। कांग्रेस के हाथ मात्र एक सीट सुल्तानपुरी की आयी थी। वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव में इन 12 में से 9 सीटें कांग्रेस के खाते में गयी थीं। इस बार दलित मतदाता किस तरह करवट लेंगे, इस पर निर्भर करेगा कि विधानसभा में दृश्य क्या बनेगा?

बदल गया दलित वोटरों का मिजाज

आमतौर पर दिल्ली में दलित मतदाताओं का झुकाव कांग्रेस की ओर रहा है। सीएसडीएस के आंकड़ों को मानें तो वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को दलितों के 37 फीसदी वोट मिले थे जबकि भाजपा को 26 फीसदी वोट मिले थे। इस चुनाव में बसपा भी खड़ी थी और उसे कुल 14 फीसदी वोट मिले थे। जाहिर है इस 14 फीसदी वोट में अधिकांश दलित वोट ही थे। इस चुनाव में बसपा के दो प्रत्याशी जीते थे और पांच अन्य प्रत्याशी 25 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने में कामयाब रहे थे। 53 स्थानों पर बसपा तीसरे स्थान पर रही थी।

लेकिन 2013 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली के वोटरों का मिजाज बिलकुल बदल गया और दलित वोटर एक तरफ से नवगठित आम आदमी के पक्ष में हो लिये। इस चुनाव में पड़े दलित वोटों में से कांग्रेस को 23, भाजपा को 29 और आप को 36 फीसदी वोट मिले। बसपा को कुल 5 फीसदी वोट मिले। साफ़ है दलित मतदाता, जो बसपा के आधार समझे जाते थे, न सिर्फ उन्होंने आम आदमी पार्टी को अपना लिया था, बल्कि कांग्रेस के दलित वोटर भी टूट कर आप के पक्ष में गये। बसपा इस चुनाव में अपना वोट शेयर 14 फीसदी से बढ़कर 17 से 20 फीसदी होने की उम्मीद कर रही थी लेकिन आप की लहर ने उसका खेल बिगाड़ दिया।

मई, 2014 के लोकसभा चुनाव में जब मोदी लहर में भाजपा ने सभी सात सीटें जीत लीं तब भी दलित वोटरों ने अलग ढंग से मतदान किया। इस चुनाव में कांग्रेस को दलित वोटों का 19 फीसदी, भाजपा को 33 फीसदी और आप को 41 फीसदी हिस्सा मिला। स्पष्ट है कि दलित वोटर लगातार कांग्रेस से टूटते जा रहे हैं और भाजपा और आप से जुड़ रहे हैं।

भाजपा की सधी रणनीति

दलित वोट के मामले में आप लगातार बढ़त पर रही, सस्ता पानी-बिजली के वादे के चलते पहले दिन से स्लम और पिछड़े इलाकों के निवासी आप के साथ रहे। यह इलाके आमतौर पर दलित बहुल ही हैं। आप के पास इस वोटर वर्ग को लुभाने के लिए स्थानीय दलित नेता हैं। इसलिए निश्चित तौर पर भाजपा की नजर इस वोट बैंक को साधने पर रही। भाजपा ने 2013 के विधानसभा चुनाव के वक्त ही इस तथ्य की पहचान कर ली थी और एससी-एसटी फेडरेशन चलने वाले दिग्गज दलित नेता डॉ. उदित राज को पार्टी में शामिल कर लिया। लोकसभा चुनाव में इसका लाभ भी मिला। भाजपा ने डॉ. उदित राज के लोकसभा चुनाव में जीतने के बाद उन्हें दलित वर्ग में भाजपा की पैठ बनाने के काम में लगा दिया। इसमें मदद के लिए उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ लोग साथ दिये गये। पार्टी के सदस्यता अभियान में भी गोकुलपुर, त्रिलोकपुरी, मगोलपुरी और सुल्तानपुरी पर खास ध्यान दिया गया जहां 37 से 45 फीसदी तक दलित हैं। दिल्ली के दलितों में पैठ बढ़ने के लिए ही भाजपा ने रामलीला मैदान में दलितों की सभा भी की। इसके अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार के दलित सांसदों को भी पार्टी ने दिल्ली में सक्रिय किया है। इसके अलावा भाजपा ने दिल्ली की सभी अनियमित कॉलोनियों को नियमित करने का फैसला कर और हर झुग्गीवासी को पक्का माकन देने का वादा कर इस वोट वर्ग में सेंध लगायी है। जनवरी के दूसरे हफ्ते में दिल्ली विधानसभा के चुनाव घोषित होने के बाद तो भाजपा ने रणनीति के तहत दलित नेताओं को पार्टी में शामिल करने की झड़ी लगा दी। पूर्व केन्द्रीय मंत्री बूटा सिंह के पुत्र और पूर्व विधायक अरविंदर सिंह लवली से लगायत आप के तमाम दलित नेताओं, बाल्मीकि समाज के तमाम नेताओं को पार्टी में प्रवेश दिया गया। इस मोर्चे पर भाजपा का मास्टर स्ट्रोक रहा कांग्रेस की दिग्गज दलित नेता कृष्णा तीरथ को पार्टी में शामिल करना। निश्चित तौर पर दलित मतदाताओं को नजर में रख कर बनायी गयी भाजपा की सधी रणनीति ने कुछ भी असर दिखाया तो वह अब आप को नुकसान देने वाला ही होगा।

बसपा की चुनौती

आप दलित वोटरों के मामले में जितनी कामयाबी हासिल कर चुकी है, उससे ऊपर जाने के लिए बहुत अलग किस्म की रणनीति की जरूरत है जो फिलहाल दिख नहीं रही। भाजपा की रणनीति कांग्रेस के बचे दलित समर्थकों के साथ ही आप समर्थक (जिनमें अधिकांशतः पूर्व में कांग्रेस समर्थक थे) को अपने पक्ष में करने की है। इस चुनौती के अलावा आप को अपने दलित समर्थकों को बनाये रखने के लिए एक और चुनौती से जूझना होगा, वह चुनौती है बसपा। पिछले चुनाव में बसपा क्या, बड़े-बड़े धुरंधरों को भी आप के पक्ष में चल रही आंधी का समुचित अहसास नहीं था। लेकिन पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पटकनी खाने के बाद बसपा को हकीकत का भान हुआ है। यही वजह है कि बसपा प्रमुख मायावती ने हर विधानसभा क्षेत्र में दो-दो जनसभाएं करने की योजना बनायी है। जाहिर है, बसपा इस चुनाव में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती। अगर दलित वोटर बसपा की ओर हल्का सा भी झुकाव दिखाते हैं तो बसपा भले कोई सीट निकाले या न निकाले, चुनावी नतीजों को तो पलट ही सकती है।

कांग्रेस की निगाह

कांग्रेस भले अभी सरकार बनाने की लड़ाई में न मानी जा रही हो लेकिन वह इस बार अपनी स्थिति को थोड़ा सम्मानजनक बनाने की हरचंद कोशिश कर रही है। कांग्रेस के निशाने पर मुख्य रूप से अल्पसंख्यक और दलित सीटें हैं। अल्पसंख्यक सीटों में इजाफा करने के लिए उसने पिछले चुनाव में जीते जदयू के एकमात्र विधायक शोएब इकबाल को अपने पाले में खींच लिया है। इसके अलावा उसकी निगाह सुरक्षित सीटों पर है। एक सुरक्षित सीट कांग्रेस जीती ही थी, चार अन्य सीटों पर भी जीते आप प्रत्याशी से कांग्रेस प्रत्याशी का अंतर बहुत ज्यादा नहीं था। कांग्रेस इसी फार्मूले पर काम कर रही है और बड़ी सतर्कता से उसने टिकट वितरण किया है।

साफ़ है, भाजपा, कांग्रेस और बसपा, तीनों सुरक्षित सीटों और दलित मतदाताओं पर नजर गड़ाये हैं। आप के पास इस तितरफा घेरेबंदी की कोई काट नहीं दिख रही। दलित मतदाताओं को रिझाने की इन तीनों दलों की रणनीतियों का मामूली असर भी दलित बहुल 20 सीटों के नतीजों में भारी उलटफेर करेगा। इस सीटों में एक के नतीजे में बदलाव दो प्रमुख दलों के बीच दो सीटों का फर्क पैदा कर देगा।

(देश मंथन, 29 जनवरी 2015)

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