रिश्तों को जीने वाले आँखों से जीते हैं

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मेरे एक फेसबुक परिजन ने मुझसे शिकायत की कि संजय सिन्हा आप बहुत झूठ बोलते हैं।

उन्होंने मेरी वाल पर ही अपनी टिप्पणी में लिखा था, “आपने तो लिखा था कि आपकी माँ इस संसार में नहीं, फिर आपने ऐसा कैसे लिखा कि आप अपनी माँ के बुलाने पर हरदोई जा रहे हैं?”

मैं बहुत देर तक इस विषय पर सोचता रहा। मैंने अपनी सफाई में उन्हें लिख दिया था कि मैं झूठ नहीं बोलता। मेरी माँ सचमुच इस संसार से चली गयी थीं। फिर उसका पुनर्जन्म हुआ और वो चली आयीं। मुझे नहीं पता कि मेरे जवाब से वो कितना संतुष्ट हुए होंगे। पर मैं बहुत देर तक सोचता रहा। मैं सोचता रहा कि क्या मैंने उन्हें अपने जवाब से वाकई संतुष्ट किया है? क्या कई लोगों के मन में यह दुविधा रहती होगी कि जो रिश्ते खून के नहीं होते, उसके इतर भी कोई रिश्ते हो सकते हैं।

बहुत सोचा। 

मुझे मेरे सवाल का जवाब मिल गया। 

***

हरदोई आते हुए मुझे नहीं पता था कि यहाँ संजय सिन्हा फेसबुक परिवार के मिलन समारोह जैसा कोई आयोजन यहाँ के लोगों ने कर रखा है। पता होता तो मैं आप सबको भी हरदोई आने का न्योता दे देता। क्योंकि मेरे मन में था कि @Urmila Shrivastava माँ ने बुलाया है, तो मुझे बस इतना लगा कि उनका मन बेटे से मिलने का है, तो मैं चला आया। 

पर यहाँ तो जैसे पूरा शहर अपना प्यार लुटाने पर तुला बैठा था। 

मैं हतप्रभ रह गया। मैं यह देख कर और हैरान रह गया कि पता नहीं कैसे हमारे इस कार्यक्रम की खुशबू बनारस वाले भैया @Shailendra Singh को लग गयी और वो भी यहाँ चले आये। मैं यह देख कर भी हैरान रह गया कि पता नहीं कैसे लखनऊ से अपनी बहन @Shiksha Dwivedi भी पति के साथ हरदोई पहुँच गयीं। यहाँ तक तो ठीक था। पर जब मुझसे यहाँ के सबसे आलीशान होटल में आयोजित समारोह ‘संजय की बात, हरदोई के साथ’ कार्यक्रम में बोलने के लिए कहा गया तो बहुत उत्साह से बोलने के लिए मंच तक पहुँचा। 

मैंने रिश्तों पर अपनी बात रखनी शुरू की। कई लोगों ने मुझसे पूछा था कि फेसबुक जैसे आभासी संसार से कैसे मेरे मन में एक परिवार की कल्पना जागी। मैंने शुरुआत जगजीत सिंह के गजल की दो पंक्तियों से की। 

“सोचा नहीं अच्छा-बुरा, देखा सुना कुछ भी नहीं,

माँगा खुदा से रात दिन, तेरे सिवा कुछ भी नहीं।”

मैंने यही बताने की कोशिश की, कि जब आप रिश्तों में अच्छा बुरा देखना और सुनना बंद कर देते हैं, जब आप रिश्तों में अपने लिए नहीं, अपने रिश्तों के विषय में सोचने लगते हैं, तो फिर ‘प्रेम’ का जन्म होता है। ढाई अक्षर का यह शब्द मनुष्य के मन की सबसे बड़ी खुराक होती है। दुर्भाग्य से आज हम जिस समाज की रचना कर रहे हैं, उसमें मानवीय मूल्यों पर आर्थिक मूल्यों का उदय होने लगा है, और ढाई अक्षर का यह शब्द अपना अर्थ खोने लगा है, पर हकीकत तो यही है कि आदमी जिस दिन सबकुछ पा लेता है, उस दिन उसे अहसास होता है कि उसकी जिन्दगी में अगर प्रेम नहीं, तो फिर कुछ भी नहीं।

मैंने बहुत बड़े-बड़े लोगों को देखा है, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन आर्थिक मूल्यों की रक्षा में गवाँ दिया है, वो अंत समय में प्रेम के दो बोल के लिए तरसते हुए दम तोड़ गये। 

मैं बड़ी-बड़ी बातें करना चाहता था। मैं रिश्तों की ढेरों कहानियाँ सुनाना चाहता था। 

पर मेरे चाहने से क्या होता। मैंने भाषण में अपनी माँ को याद किया और कहा कि सबसे दुर्भाग्यशाली वो बच्चे होते हैं, जिनके सर से माँ का छाया खत्म हो जाती है। और मैं ऐसा ही एक दुर्भाग्यशाली बच्चा था। पर मुझसे सौभाग्यशाली भी कोई नहीं कि मुझे फिर माँ का प्यार मिल गया। 

इतना ही बोला था और मैंने मंच पर बैठी माँ की ओर देखा। देखा कि माँ अपने चश्मे के पीछे नम हुई आँखों को पल्लू से पोछ रही हैं। 

मैंने खुद पर नियंत्रण किया और मैंने कहा कि मैं रिश्तों के इस संसार से जुड़ा अपने छोटे भाई की वजह से। मेरा छोटा भाई… जो तीन साल पहले इस संसार से अचानक चला गया, इतना ही बोल पाया और मेरी निगाह मंच पर बैठे अपने भाई शैलेंद्र सिंह पर पड़ी। वो गिलास से पानी का घूँट पी रहे थे और रूमाल निकाल कर अपने आँसू पोछ रहे थे। 

बस मेरा गला रुंध गया। मैं एक शब्द भी बोलने की स्थिति में नहीं रहा। माइक के सामने खड़ा होकर जोर-जोर से रोने लगा। मुझे रोते देख कर पूरा हॉल रोने लगा। जितने लोग थे, सब रोने लगे। 

फिर कहने को क्या बचा?

जिस गजल की पंक्तियों से मैंने भाषण की शुरुआत की थी, उसी की अगली पंक्ति को किसी तरह बोल पाया-

“एक रात की दहलीज पर बैठा रहा मैं देर तक,

आँखों से की बातें बहुत, मुँह से कहा कुछ भी नहीं।”

***

जब आप प्रेम में होते हैं, तो मुँह से कुछ कहने की और कान से कुछ सुनने की दरकार नहीं रह जाती। 

प्रेम में पड़े आदमी, रिश्तों को जीने वाले लोग सिर्फ आँखों से जीना जानते हैं। 

कल पूरा हरदोई गवाह है कि वहाँ समारोह में मौजूद हर व्यक्ति मोहब्बत के उन पलों को सिर्फ आँखों से जी रहा था। सचमुच हरदोई मोहब्बत का शहर है। प्रेम का शहर है।

सलाम हरदोई! 

(देश मंथन, 14 मार्च 2016)

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