मोदी जी ने विदेशी मोर्चे पर देश को निर्विवाद महिमा मंडित किया

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पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :

दो दिन पहले मैं एक चैनल पर कांग्रेस के प्रवक्ता मीम अफजल को सुन रहा था..कह रहे थे, ‘ भारतीय प्रधान मन्त्री विदेश दौरे को इवेंट क्यों बना देते हैं। इतनी हाइप हो जाती है कि दौरे का उद्देश्य ही उसमें गुम होकर रह जाता है।’ अफजल साहब खुद राजनयिक रहे हैं।

वह इस तथ्य से शायद ही नावाकिफ हों कि स्वाधीन भारत में प्रधान मन्त्रियों की राजकीय विदेश यात्राएँ बेहद औपचारिक और काफी कुछ अंशों तक उबाऊ हुआ करती थीं। मीडिया में इनकी चर्चा भी सपाट बयानी से ज्यादा कुछ भी नहीं हुआ करती थी। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र कभी न टूटने वाली नींद ले रहे शेर की मानिंद ही था। 

साठ के दशक की बात है। पितामह और पिता एक शाम, घर की बैठक में चर्चा कर रहे थे। दादा जी ने पुत्र से पूछा, ‘राधा का क्या हाल है, अमेरिका गया है, वहाँ तो वह छा जायेगा परम विद्वान है।’ । जी हाँ, बात तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की हो रही थी जो दादा जी के मित्रों में थे और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के बतौर वाइस चान्सलर वह बनारस के विद्वानों की खूब संगत करते थे। 

पिताजी नें उदास मन से बताया कि भारतीय राष्ट्रपति को अमेरिका ने कोई भाव ही नहीं दिया और उनके आगमन का समाचार न्यूयार्क टाइम्स के अन्तिम पन्ने पर आखिरी कालम में सबसे नीचे चार लाइन में लगा है। 

1962 की उस यात्रा से लेकर पिछली यूपीए सरकार तक यही एक कहानी हम देखते सुनते रहे थे। इसमें पिछली एनडीए सरकार भी शामिल है। मगर वर्तमान मोदी सरकार के गुजरे पहले साल में कम से कम विदेश नीति में एक जबरदस्त गुणात्मक सकारात्मक बदलाव यह देखने को मिला कि भारतीय प्रधान मन्त्री की राजकीय विदेश यात्रा सिर्फ घर ही नहीं, मेजबान देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की मीडिया में सुर्खियाँ बनती रही हैं । 

जापान, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा आदि लोकतान्त्रिक देशों में प्रधान मन्त्री का अभूतपूर्व खैर मकदम यह स्पष्ट सन्देश देनें में सफल रहा कि शेर नींद से जाग चुका है और उसकी दहाड़ दिग दिगंत में सुनी जा सकती है। एक बार फिर डेढ़ दशक पहले की कहानी – भारत दुनिया की सबसे गतिमान अर्थव्यवस्था है – दुनिया भर में सुनायी पड़ने लगी है। राष्ट्पति प्रोटोकाल तोड़ते दिखे चाहे वह महाबली अमेरिका हो या दूसरी सबसे बडी अर्थव्यवस्था वाला देश चीन हो। 

पश्चिमी देशों में मोदी जहाँ भी गये, एनआरआई भारतीयों का अपार जनसमर्थन चौंकाने वाला रहा। मेडिसन स्क्वायर से लगायत चीन की मायानगरी शंघाई में भारतीय प्रधान मन्त्री का ऊर्जा से ओत-प्रोत सार्वजनिक उद्बबोधन वाकई किसी ग्रैंड शो सरीखा रहा और और भविष्य में दादा-दादी नाना-नानी की कहानियों में शुमार हो गया। सच तो यह कि देश जिस सम्मान का हकदार था वह उसे अंततोगत्वा आधी सदी बाद कहीं जाकर अब मिला। खास तौर से साम्यवादी चीन जैसे देश में किसी विदेशी प्रीमियर का सार्वजनिक संबोधन सचमुच कल्पना से परे था।

मोदी जी से पहले कुछ अंशों तक देश के प्रथम प्रधान मन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने प्रभामंडल से विश्व को प्रभावित जरूर किया था पर उनकी वामपंथी सोच और सोवियत संघ के प्रति आसक्ति नें पश्चिमी लोकतांत्रिक शक्तियों को भारत से दूर ही रखा था। कर्नल नासिर (मिस्र के राष्ट्रपति) और यूगोस्लाविया के सदर मार्शल टीटो के साथ मिल कर पन्डित नेहरू ने जिस निर्गुट आन्दोलन की नीव रखी वह और कुछ नहीं अमेरिकी गुट से बाहर के देशों का एक ऐसा मंच बन कर रह गया जो अपने उद्देश्यों में नितांत असफल साबित हुआ और आज उसका कोई नाम लेवा भी नहीं है। नेहरू के पंचशील नारे की कैसी निर्मम असमय हत्या हुई इसे चीन के 1962 में भारत पर आक्रमण से समझा जा सकता है।

जिस विदेश नीति को देश में आम सहमति के तौर पर प्रचारित किया गया वह यथार्थ में कभी थी ही नहीं। भारत की उसी नीति का कुपरिणाम है कि उस पर एक साफ्ट कंट्री (दब्बू राष्ट्र) का ऐसा ठप्पा लगा जो कल तक अमिट सा लग रहा था मगर बीते एक साल के दौरान विदेश मोर्चे पर मिली अपार सफलता से अब उम्मीद जगने लगी है कि कोई जामवंत आकर हनुमान को उसकी ताकत का अहसास करा कर उसे शाप मुक्त करने को है।

कांग्रेस बेचारी परेशान है। उसे मोदी के विदेशी दौरे आँखों में उतने नहीं खटक रहे हैं जितना भारतीय प्रधान मन्त्री को मिलने वाला प्रचार। उसका दर्द कितना नकली है जब कोई कांग्रेसी यह कहता है कि देश में मौसम की मार पड़ी, किसान आत्म हत्या कर रहे हैं और मोदी जी विदेश भ्रमण करते नहीं थक रहे। वह अपने लिए प्रचार पर हजारों करोड़ फूंक रहे हैं। दौरों में जो समझौते हुए उनका कोई मायने नहीं है। लाखों करोड़ वाला कथित निवेश भ्रमजाल के अलावा कुछ भी नहीं। 

देश को अपनी रियाया समझ कर जमींदार की तरह कारिंदों के बल पर आधी सदी से भी ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस ने शायद ही कभी खुद में झाँका हो। ऐसा करती तो उसको जवाब मिल जाता कि दोगली अर्थनीति के चलते उसने देश की मीडिया को भी किस कदर हरदब में रखा था। मीडिया घरानों को लगभग मुफ्त में भूखंड, कागज का कोटा और सरकारी विग्यापन से किस कदर अपनी भाषा में बोलने पर विवश किया, यह भी भला क्या बताने की जरूरत है ? जिस पेड न्यूज की आज बात की जा रही है, सच तो यह कि उसकी शुरुआत तो देश में आजादी मिलने के तत्काल बाद ही शुरू हो चुकी थी। 

कांग्रेस का एक दर्द यह भी, कि नरेन्द्र मोदी ने मीडिया को मैनेज कर रखा है, कितना हास्यास्पद सा लगता है, जबकि सचाई इसके सर्वथा उलट है। मोदी जी ने जितनी भी विदेश यात्राएँ की सिर्फ दूरदर्शन ही उनके साथ गया। पर मजा यह कि चाहे प्रिन्ट हो या ब्राडकास्ट उसके प्रतिनिधि प्रधान मन्त्री के आगमन के पहले ही घमक जाते रहे हैं और पाठक हो सा टीवी दर्शक उसके लिए यह किसी सबसे दिलचस्प रोमांचक घटना के रूप में किस कदर अभिभूत करता रहा, इसे सहज ही समझा जा सकता है।

देश की बाकी राजनीतिक पार्टियों को वाकई मोदी से बनियागिरी सीखनी चाहिये कि मौके को कैसे भुनाना और उसका दोहन किया जाना चाहिए। खास तौर से कांग्रेस को मार्केटिंग के गुर इसलिए सीखने की जरूरत है कि उसके प्रधान मन्त्री जब विदेश यात्राओं पर जाते थे तब वे खचिया भर के चहेते पत्रकारों को साथ ले जाते थे। मुफ्त की विमान यात्रा, रियायती दर पर होटल की सुविधा और सात सितारा राजकीय भोजों का सुख। पर कवरेज के नाम पर लगभग सिफर। हिन्दी अखबारों के तो अधिकांश मालिक – संपादक विदेश पर्यटन का खुद ही सुख भोगते थे, यह सर्वविदित है। क्या हुआ कि एकाध फोन कर दिया समाचार संपादक को कि ऐसे खबर का ट्रीटमेंट करना और सुबह एजेंसी की खबरें इधर-उधर घुमा कर संपादक जी के नाम से प्रकाशित करना रूटीन सा हो गया था। हाँ, स्वदेश वापसी के दौरान विमान में प्रेस काँफ्रेंस जरूर हुआ करती थी और इसका लाभ पत्रकार अपना पीआर बढ़ानें में ज्यादा उठाते थे।

मोदी सरकार के एक साल के कार्यकाल का मैं यहाँ लेखा-जोखा करने नहीं बैठा हूँ। पर हाँ इतना जरूर कहना चाहूँगा कि बड़ा से बड़ा आलोचक भी यह स्वीकार करेगा कि इस दौरान भारत को विदेशी मोर्चे पर नरेन्द्र मोदी ने महिमा मंडित जरूर किया है। और हाँ देश की अभी तक तिरस्कृत सी रही राष्ट्र भाषा हिन्दी को भी 68 साल बाद कहीं जाकर इतराने का पहली बार सुयोग मिला है।

(देश मंथन, 19 मई 2015)

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