विपक्षी महागठबंधन पर कांग्रेस की दबाव की रणनीति

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संदीप त्रिपाठी :

केंद्र की एनडीए सरकार के खिलाफ देशभर में विपक्षी दलों का महागठबंधन बनाने की कल्पना को खुद कांग्रेस खारिज करती दिख रही है। एक तरफ दिल्ली में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर ‘महागठबंधन’ का प्रयास आसान नहीं होगा।

दूसरी तरफ, उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में कांग्रेस कार्यकर्ता सम्मेलन में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि भले ही कांग्रेस ने समान विचारधारा वाले दलों की ओर महागठबंधन के लिए हाथ बढ़ाया है, लेकिन पार्टी अकेले भी चुनाव में उतरने को तैयार है।

सिब्बल, आजाद के बयान के निहितार्थ

एक ही दिन कांग्रेस के इन दो बड़े नेताओं के इस तरह के बयान के निहितार्थ क्या हैं, यह समझने की जरूरत है। फिलहाल कोई एक विपक्षी दल अकेले भाजपा का मुकाबला करने में समर्थ नहीं दिखता। ऐसे में केंद्र से मोदी सरकार को हटाने के लिए तमाम विपक्षी दलों का राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट होना महत्वपूर्ण है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाले इस महागठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा, यह लाख टके का सवाल है। कांग्रेस चाहती है कि इस विपक्षी महाजुटान का नेतृत्व राहुल गांधी को दिया जाये। लेकिन क्षेत्रीय दल कांग्रेस की कमजोर स्थिति से वाकिफ हैं। इसलिए वे राहुल को नेतृत्व देने के बिंदु पर तैयार नहीं हैं। ऐसे में कांग्रेस के इन वरिष्ठ नेताओं के इन बयानों का अर्थ यह है कि कांग्रेस ने एनडीए के खिलाफ विपक्षी दलों के महागठबंधन के लिए अपने प्रयास पूरे कर लिये हैं और उसे अहसास हो गया है कि अपनी शर्तों पर महागठबंधन की उसकी कोशिशें परवान नहीं चढ़ेंगी। लेकिन ये नेता इन बयानों के साथ ही विपक्षी दलों की एकता के आह्वान का पुछल्ला भी जोड़ते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों से मोलभाव को अभी खत्म करने की इच्छुक भी नहीं है और दबाव की रणनीति पर अमल कर रही है। यानी अभी कुछ खिचड़ी पकनी बाकी है। इन बयानों से कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाना भी एक कोण है।

इन सूबों में मजबूत है कांग्रेस

हिमाचल, उत्तराखंड, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, और गोवा में एक तरह से द्विदलीय स्थिति हैं जिसमें कांग्रेस भाजपा के खिलाफ एकमात्र विपक्षी ताकत है जहाँ वह अन्य किसी दल को जगह देना नहीं चाहेगी। इन राज्यों में लोकसभा की 102 सीटें हैं। पंजाब, हरियाणा और तेलंगाना (तीनों में कुल मिलाकर 40 सीटें) में तिकोनी लड़ाई बनी हुई है जिसमें कांग्रेस के लिए अन्य दोनों में से किसी एक के साथ गठबंधन करना मुश्किल है। आंध्र प्रदेश में टीडीपी से समझौता करना कांग्रेस के लिए सूबे में अपनी राजनीति खत्म करने जैसा होगा। कर्नाटक (28 सीटें) में कांग्रेस जद (एस) के साथ गठबंधन में है और बड़ी पार्टी होते हुए भी उसे परिस्थितिवश छोटे भाई की भूमिका में रहना पड़ रहा है तो महाराष्ट्र (48 सीटें) में शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी उसकी सहयोगी है। वस्तुत: कांग्रेस की पूरी लड़ाई इन्हीं राज्यों की लोकसभा सीटों पर केंद्रित है।

यहाँ कांग्रेस के हिस्से छोटे भाई की भूमिका

कश्मीर में वह नेशनल कान्फ्रेंस की सहयोगी की भूमिका में है। दक्षिण के राज्यों में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में कांग्रेस का क्रमश: टीडीपी और डीएमके से समझौता हो सकता है लेकिन जूनियर पार्टनर के रूप में ही। असम और केरल में कांग्रेस को छोटी-छोटी तमाम पार्टियों से समझौते में रहना है।  

लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, उड़ीसा और दिल्ली में स्थिति अलग है। लोकसभा की 183 सीटों वाले इन छह राज्यों में कांग्रेस की स्थिति काफी कमजोर है। उत्तर प्रदेश को लें तो मायावती की बसपा और अखिलेश यादव की सपा के गठबंधन में अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के आने के बाद कांग्रेस के लिए कोई खास स्थिति नहीं दिखती। इसी तरह बिहार में भी कांग्रेस विपक्षी गठबंधन में एक-दो सीटों से ज्यादा की अहमियत नहीं रखती। कांग्रेस पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और दिल्ली की मुख्य लड़ाई से बाहर दिखती है। इन तीनों राज्यों में दो मुख्य दलों में कांग्रेस का किसी के साथ जाना संभव नहीं दिखता।

इस तरह, भाजपा के खिलाफ बसपा, सपा, राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, द्रविड़ मुनेत्र कषगम जैसे बड़े क्षेत्रीय विपक्षी दलों के लिए कांग्रेस को ज्यादा भाव देने का अर्थ नहीं बनता और लगता है कि कांग्रेस को यह बात समझ में आ गयी है। मौजूदा लोकसभा में कांग्रेस की कमजोर स्थिति भी उसे मोलभाव में कमजोर बना रही है।

(देश मंथन, 07 सितंबर, 2018)

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