क्यों फिर उल्टा पड़ गया कांग्रेस का दाँव

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कांग्रेस अध्यक्षों की सूची 1947 से नहीं, 1978 से देखें…

राजीव रंजन झा : 

शशि थरूर कांग्रेस के नये मणिशंकर अय्यर बन गये हैं। वे अपनी समझ से तो भाजपा पर बहुत धारदार हमला करते हैं, पर भाजपा उनका फेंका हुआ हथगोला लपक कर वापस कांग्रेसी खेमे पर ही उछाल दे रही हैं।

मोदी के लिए “शिवलिंग पर बिच्छू” वाली जो बात थरूर ने कही थी, वह खुद कांग्रेस को नुकसान पहुँचाने में किसी मायने में अय्यर के “नीच” और “मोदी चाय बेचें” वाले बयानों से कमतर नहीं रही। अब थरूर ने एक चायवाले के प्रधानमंत्री पद तक पहुँच जाने का श्रेय नेहरू को दिया तो यही सोच कर कि इससे नेहरू का वैचारिक गुणगान होगा। मगर इस बार तो खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ही उनका बयान लपक कर वापस कांग्रेस पर बूमरैंग कर दिया है। 

दरअसल थरूर ने जाने-अनजाने में बहस ऐसे बिंदु पर मोड़ दी, जो कांग्रेस की कमजोर नस है। वंशवाद पर छिड़ी कोई बहस कांग्रेस तो नहीं जीत सकती। लोकतंत्र के प्रति आस्था और देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाने के मामले में कांग्रेस को मिलने वाले सकारात्मक अंकों के मुकाबले नकारात्मक अंक बहुत-ही ज्यादा हैं। इस देश में लोकतंत्र को स्थगित करने का कारनामा केवल एक बार हुआ, और वह कीर्तिमान कांग्रेस के ही नाम पर दर्ज है। भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुनियोजित तरीके से कमजोर करने में कांग्रेस का कोई सानी नहीं रहा है। राजनीतिक दलों को पारिवारिक जायदाद बना देने का जो चलन आज हमें सर्वत्र दिखने लगा है, उसके बीज कांग्रेस ने ही डाले थे। 

थरूर ने अपनी एक पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर सोनिया गांधी की उपस्थिति में कहा, “आज अगर एक चायवाला हमारा प्रधानमंत्री है, तो यह इसलिए कि नेहरू जी ने ऐसा संस्थागत ढाँचा बनाया जिसके जरिये कोई भी भारतीय इस देश की सबसे ऊँची कुर्सी तक पहुँच सकता है।” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका जवाब दिया छत्तीसगढ़ के चुनावी अभियान के दौरान अंबिकापुर में। उन्होंने कहा, “राजदरबारियों को एक ही परिवार के गीत गाने का शौक लग गया है।” 

कांग्रेस में एक परिवार को राजवंश का दर्जा प्राप्त है और बाकी सभी राजदरबारी हैं, यह बात स्वयंसिद्ध है। मोदी को अपने इस आरोप को सिद्ध करने का कोई प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ती। मोदी ने आगे वही किया, जिसमें उन्हें महारत है। खुद पर फेंके गये पत्थरों से ही वे अपने लिए रास्ता बनाते रहे हैं। अंबिकापुर में मोदी बोले, “उनके दिमाग में बैठता ही नहीं है कि गरीब माँ का बेटा, उनको अंग्रेजों ने जो विरासत में दी थी, उस राजगद्दी पर बैठ कैसे गया? जब तक आप हिंदुस्तान के लोकतंत्र को नहीं समझोगे, आप एक चायवाले को दिन-रात गाली देते रहोगे।”

नेहरू ने देश में कैसा ढाँचा विकसित किया, इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण तो उनका अपना ही दल है। इसीलिए आगे मोदी ने स्वाभाविक रूप से कांग्रेस पर गांधी परिवार के संपूर्ण वर्चस्व पर ही इन शब्दों में हमला किया, “कहते हैं कि पंडित नेहरू के कारण ये मोदी चायवाला प्रधानमंत्री बन गया। अगर आपके दिलों में लोकतंत्र की इतनी भावना भरी पड़ी है, अगर आप इतना लोकतंत्र का सम्मान करते हैं, एक छोटा काम कर दीजिए। बताऊँ? अरे अगर आपके उसूलों के कारण, लोकतंत्र के प्रति आपकी श्रद्धा के कारण, संविधान में आपकी भूमिका के कारण, अगर आप दावा करते हैं कि पंडित नेहरू के कारण मोदी देश का प्रधानमंत्री बन गया, एक चायवाला प्रधानमंत्री बन गया, अरे देश छोड़ो, एक बार कम-से-कम पाँच साल के लिए आपके परिवार के बाहर के किसी अच्छे कांग्रेसी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बना दें, मैं मान लूँगा। मैं मान लूँगा कि नेहरू जी ने ऐसी लोकतांत्रिक परंपराएँ पैदा की थीं, कि जिसके कारण कोई समर्पित कांग्रेसी कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बन पाया। एक परिवार के बाहर जरा कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष कोई बन कर दिखाये, पाँच साल के लिए, ज्यादा नहीं।”

भारतीय राजनीति को जानने वाला कोई बच्चा भी समझ सकता है कि कांग्रेस इस चुनौती को कतई स्वीकार नहीं कर सकती। हालाँकि मोदी की इस चुनौती के जवाब में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के 15 कांग्रेस अध्यक्षों की सूची जरूर जारी कर दी, लेकिन यह सूची आज के इस सच को नहीं झुठला सकती कि वर्तमान कांग्रेस पूरी तरह से गांधी परिवार की पारिवारिक संपत्ति है। कहने को तो कांग्रेस डॉ. मनमोहन सिंह को भी उदाहरण की तरह पेश करती है कि कैसे गांधी परिवार से बाहर का व्यक्ति 10 वर्षों तक प्रधानमंत्री रहा। हालाँकि असल में यहाँ बात पार्टी अध्यक्ष या प्रधानमंत्री होने की नहीं, बल्कि कांग्रेस के ढाँचे में सर्वोच्च सत्ता होने और पार्टी पर पूर्ण नियंत्रण होने की है। इंदिरा गांधी ने अपने प्रधानमंत्री रहते हुए आरंभिक वर्षों में अपने कई चहेतों को पार्टी अध्यक्ष बनवाया था, लेकिन सत्ता उनके हाथों में पूरी तरह केंद्रित रही। वहीं सोनिया गांधी ने 10 वर्षों तक डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाये रखा, लेकिन सत्ता की बागडोर सोनिया के हाथों में रही। 

हालाँकि थरूर ने उसी कार्यक्रम में इन आरोपों को निराधार बताने की कोशिश की थी कि नेहरू ने अपनी बेटी इंदिरा गांधी को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने का प्रयास किया था। यह बात ऐतिहासिक रूप से सच है कि नेहरू ने इंदिरा की प्रभुता स्थापित कराने के लिए उन्हें अपने प्रधानमंत्री रहते 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया था। इस बात को लेकर उस समय के वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं में काफी नाराजगी भी थी। साथ ही तब तक लोकतंत्र का आवरण बनाये रखने की मजबूरी लगती थी। उस समय पार्टी में तमाम लोग ऐसे थे, जिनका अपना जनाधार था और जिनकी अपनी तपस्या किसी से कम नहीं थी। इसलिए तब इंदिरा केवल एक साल ही अध्यक्ष पद पर रहीं। 

चिदंबरम ने नेहरू-गांधी परिवार से इतर 15 अध्यक्षों की सूची जरूर जारी कर दी, लेकिन इनमें से अधिकांश नाम इंदिरा गांधी के पूर्ववर्ती या उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद के आरंभिक वर्षों के हैं। जब इंदिरा प्रधानमंत्री बनी थीं, तब शुरुआत में कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर उनके चहेते लोग बैठते रहे। लेकिन इस दौरान सत्ता पूरी तरह इंदिरा में केंद्रित हो गयी और पार्टी अध्यक्ष का पद महत्वहीन हो गया। इसी दौरान आपातकाल के समय इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा का नारा देने वाले देवकांत बरुआ भी अध्यक्ष बने थे। 

मगर जनता शासन के दौरान विपक्ष में रहते हुए इंदिरा ने पार्टी अध्यक्ष का पद अपने हाथों में ले लिया और उसके बाद दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद भी यह पद अपने ही पास रखा। 1977 के बाद से अब तक गांधी परिवार से बाहर के केवल दो ही कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं और केवल छह साल ही ऐसे रहे हैं, जब कांग्रेस के शीर्ष पद पर गांधी परिवार का कब्जा नहीं रहा है। जब राजीव गांधी की दुखद हत्या के बाद नरसिंह राव ने पार्टी की कमान सँभाली तो गांधी परिवार को पूरे सत्ता-तंत्र और कांग्रेस मुख्यालय से बाहर रखा। फिर सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष बन गये। राव के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए तो सोनिया गांधी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकी थीं, लेकिन केसरी के हाथों में कमान जाने के 2 साल के अंदर उन्होंने कांग्रेस मुख्यालय से केसरी को सामान समेत बाहर फिंकवा दिया था। बताया जाता है कि केसरी को धकियाते समय उनकी धोती खोल दी थी गांधी-परिवार के चमचों ने। राव और केसरी के समय सोनिया गांधी एक तरीके से कांग्रेस से बाहर ही थीं। बताया जाता है कि राव के प्रधानमंत्री रहने के दौरान उनके मंत्रिमंडल का कोई सदस्य सोनिया गांधी से मिलने भी नहीं जाता था। इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जो आज गांधी परिवार के परम-भक्त माने जाते हैं। 

हैरानी तो इस बात की है कि चिदंबरम ने गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के कांग्रेस अध्यक्षों की सूची जारी करते समय राव और केसरी को गिन कैसे लिया! सोनिया-राहुल की कांग्रेस में तो कभी इन दोनों को गलती से भी याद नहीं करने की परंपरा बन चुकी है। मार्गरेट अल्वा ने अपनी पुस्तक में बाकायदा दर्ज किया है कि कैसे राव की मृत्यु होने पर उनके शव को कांग्रेस मुख्यालय के भीतर लाने तक नहीं दिया गया। यह घटना राव के प्रति गांधी परिवार की घृणा के स्तर को दिखाती है। 

हालाँकि चिदंबरम की इस सूची के कुछ अपने निहितार्थ भी निकलते हैं। कांग्रेस की सत्ता छिनने के बाद से चिदंबरम के कई ऐसे बयान रहे हैं, जिन्होंने कांग्रेस नेतृत्व को असहज किया है और कांग्रेस को उनके ऐसे बयानों से कन्नी काटनी पड़ी है। चिदंबरम ने हाल में ही कहा था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में यह जरूरी नहीं है कि यूपीए की ओर से राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री का चेहरा बनें। सत्ता के गलियारों की कानाफूसी में चिदंबरम का जिक्र कांग्रेस के संदर्भ में कुछ उसी तरह से किया जाता है, जैसे भाजपा के संदर्भ में क्लब 160 का। 

फिलहाल, इतना तो साफ है कि देश में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय नेहरू को देकर गांधी परिवार की राजनीतिक विरासत को मजबूत करने का थरूर का प्रयास बिल्कुल ही उल्टा पड़ गया है। थरूर ने मोदी को यह कहने का एक अवसर प्रदान कर दिया कि “हिंदुस्तान के लोकतंत्र का किसी एक परिवार को ठेका नहीं दिया हुआ है।”

मोदी ने कांग्रेस को जवाब देते हुए कहा है कि “हिंदुस्तान का लोकतंत्र हिंदुस्तान की अवाम में है। हिंदुस्तान का लोकतंत्र – पढ़े हों, अनपढ़ हों, शहरी हों, ग्रामीण हों, युवा हों, बुजुर्ग हों, माता हो, बहन हो, उनकी सोच-समझ में पला-बढ़ा है।” क्या कांग्रेस यह कहना चाहती है कि भारत में लोकतंत्र इस देश के जनमानस की वजह से नहीं, केवल नेहरू की वजह से है?

ऐसे में मोदी को स्वाभाविक रूप से यह कहने का मौका मिलता है कि “चायवाला प्रधानमंत्री बन गया, इसके लिए वे सवा सौ करोड़ देशवासियों को क्रेडिट देने के लिए तैयार नहीं हैं। यह उनकी अलोकतांत्रिक मानसिकता का परिणाम है। उसके लिए भी नेहरू को ही क्रेडिट देने का मन करता है। अगर लोकतंत्र में श्रद्धा है, तो चायवाले के प्रधानमंत्री बनने का यश मोदी को भी नहीं जाता है, बीजेपी को भी नहीं जाता है, अगर उसका यश जाता है तो मेरे सवा सौ करोड़ देशवासियों की जागरूकता को जाता है, देशभक्ति को जाता है।” 

लेकिन लोकतंत्र के बारे में जब मोदी कांग्रेस को नसीहतें देते हैं, तो उन्हें जरा अपने दल का हाल भी देखना होगा। बेशक, शीर्ष नेतृत्व पर अब तक भाजपा वंशवाद से दूर है। स्वयं मोदी पर अपने परिवार को किसी भी रूप में लाभ पहुँचाने का आरोप नहीं लगा है। सच तो यह है कि मोदी ने अपने परिवार से इतनी अधिक दूरी बना रखी है कि भारतीय समाज में इसे बहुत-से लोग निष्ठुरता के रूप में देखते हैं। हालाँकि जो लोग संघ प्रचारकों की जीवन-शैली को जानते हैं, वे इस बात की पृष्ठभूमि को सही ढंग से समझ सकते हैं। 

मगर मोदी और अन्य वरिष्ठ भाजपा नेताओं को यह देखना होगा कि भाजपा सामंतवाद की गिरफ्त में जा रही है। मोदी कांग्रेस को नसीहत देते हुए कहते हैं कि “भारत के लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा कि परिवारवाद से देश बाहर निकले। ये राजपरिवार बन बैठे हुए हैं, उससे बाहर निकले। यह देश के लिए आवश्यक है।” लेकिन मोदी यह क्यों भूल रहे हैं कि भाजपा में भले शीर्ष पर एक खानदान नहीं है, लेकिन स्थानीय स्तर पर सामंतों की तरह उभरते परिवार हैं। कांग्रेस का वंशवाद ऊपर से नीचे की ओर चला। भाजपा का वंशवाद नीचे से ऊपर चढ़ रहा है। यह पानी ज्यादा ऊपर चढ़ गया तो डूबने का खतरा है।

(देश मंथन, 19 नवंबर 2018)

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