हो सके तो दो-चार मानवाधिकारवादियों को भी बोनट पर घुमा दीजिए!

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अभिरंजन कुमार, पत्रकार :

वैसे हमारे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने एक कथित पत्थरबाज को जीप की बोनट पर बाँधने के लिए सेना की खूब आलोचना की है, लेकिन मुझे लगता है कि सेना को ऐसे एक नहीं, सौ पत्थरबाज (सिर्फ पत्थरबाज) पकड़ने चाहिए और घाटी में अपने तमाम ऑपरेशनों और आवाजाही के दौरान उन्हें अपनी गाड़ियों के आगे टाँगे रखना चाहिए।

इससे एक तरफ जहाँ पत्थरबाजों को घाटी में सेना की सुरक्षा में खुली जीप पर सैर करने का आनंद मिलेगा, वहीं सेना को भी दिहाड़ी पत्थरबाजों से मुक्ति मिल जाएगी।

देखा जाए तो घाटी में हिंसा और पत्थरबाजी से निपटने का यह सबसे कारगर और गांधीवादी तरीका है, जिसके जरिए बिना एक बूंद खून बहाए शांति कायम की जा सकती है। साथ ही, जो लोग आतंकवादियों से पैसे लेकर हिंसा और पत्थरबाजी कर रहे हैं, उन्हें भी अच्छा सबक दिया जा सकता है। सेना पत्थरबाजों को गोली मारे, उनपर पैलेट गन चलाए या प्लास्टिक बुलेट का इस्तेमाल करे- इसकी तुलना में पत्थरबाज़ों को बोनट पर बांधना सर्वाधिक अहिंसक और नुकसानरहित तरीका है।

दरअसल, जो लोग मानवाधिकारों की आड़ में पाकिस्तान और आतंकवादियों के लिए छिपे तौर पर काम कर रहे हैं, वे सेना के इस जबर्दस्त आइडिया से सदमे में आ गये हैं। उन्हें फौरन समझ आ गया कि अगर सेना ने इस प्रयोग को व्यवहार में उतारने का फैसला कर लिया, तो बिना खून बहाए पाकिस्तान और आतंकवादियों की खटिया खड़ी हो जाएगी, इसीलिए उन्होंने मानवाधिकारो की आड़ में इसका विरोध करना शुरू कर दिया।

दरअसल ये तथाकथित मानवाधिकारवादी चाहते ही नहीं कि घाटी में शाति बहाल हो, क्योंकि अगर वहाँ शांति कायम हो गयी, तो इन सबकी दुकानदारी बंद हो जाएगी। सच यही है कि इनके बीवी-बच्चों की मौज-मस्ती हिंसा और रक्तपात से होने वाली कमाई से ही चलती है। इसलिए, चाहें तो आप मेरी भी आलोचना शुरू कर दें, लेकिन जिन भी सेना अधिकारी ने पत्थरबाज को ढाल की तरह इस्तेमाल करने का आइडिया निकाला, मै उनके बुद्धि-विवेक को तह-ए-दिल से सलाम करता हूँ।

मैं चाहता हूँ कि घाटी में गोली-बंदूक, पैलेट गन, प्लास्टिक बुलेट, आँसू गैस इत्यादि सभी तरह के हथियारों का इस्तेमाल बंद हो। यकीन मानिए, जब सेना के जवान मरते हैं, तब तो खून खौलता ही है, लेकिन अगर पत्थरबाज भी मारे जाएं, तो अच्छा नहीं लगता, क्योंकि भले ही वे रास्ता भटक रहे हैं, लेकिन हैं तो हमारे अपने ही। इसलिए अगर उन्हें गांधीवादी तरीके से सुधारा जा सके, तो इससे अच्छी बात कुछ भी नहीं हो सकती।

इसलिए, मेरा सुझाव है कि पत्थरबाजों के अलावा हो सके, तो दो-चार मानवाधिकारवादियों और अलगाववादी नेताओं को भी जीप पर बाँधकर घाटी में घुमा दीजिए। मजा आ जाएगा। और अगर लगातार दस-पंद्रह दिन भी आपने ऐसा कर दिया, तो जन्नत पहुंचकर 72 हूरों के साथ रंगरलियाँ मनाने का सपना देखने वाले सभी लोग तत्काल सुधर जाएंगे। क्योंकि इसके बाद उन्हें पता होगा कि अगर फिर से हिंसा या पत्थरबाजी की, तो फिर से बोनट पर बांध दिये जाएंगे।

दुखद यही है कि भाड़े के मानवाधिकारवादियों और बिके हुए नेताओं द्वारा की गई आलोचनाओं से सेना और सरकार दबाव में आ गई लगती है। उसे इस नायाब प्रयोग को बिना दबाव में आए कुछ दिन जारी रखना चाहिए। अरे, कोई मुल्क आतंकवादियों के माथे पर 10 हजार किलो का बम फोड़ रहा है, उससे तो लाख दर्जे बेहतर यह विकल्प है। आखिर सेना को कुछ तो करने दोगे?

(देश मंथन, 19  अप्रैल 2017)

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