उम्मीदों के बोझ से दबे हैं मोदी और ओबामा

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राजेश रपरिया :

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा उम्मीदों के भारी बोझ से दबे हुए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति दिल्ली पहुँच चुके हैं। नाभिकीय, ट्रांसफर प्राइसिंग, रक्षा वैदेशिक व्यापार संबध, जलवायु परिवर्तन आदि मुद्दों पर सार्थक पहल की उम्मीद दोनों देशों को है।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारी-भरकम लाव-लश्कर के साथ तीन दिनों के भारत दौरे पर दिल्ली आ चुके हैं। वे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, जो गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि होंगे। बराक ओबामा पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, जो अपने कार्यकाल में दो बार भारत आये हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अमेरिका यात्रा कर चुके हैं। मोदी के सत्तारूढ़ होने के महज आठ महीनों में इन मेल-मिलापों से जाहिर है कि केवल मोदी ही नहीं, अमेरिका भी भारत-अमेरिका संबंधों को वहाँ देखना चाहता है, जहाँ उन्हें होना चाहिए! इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति के इस दौरे से भारी उम्मीदें हैं।

लेकिन हकीकत यह भी है कि ये दोनों ही अपनी घरेलू राजनीतिक परिस्थितियों के आगे लाचार हैं। अमेरिकी संसद (कांग्रेस) में विरोधी पार्टी रिपब्लिकन का आधिपत्य है, तो यहाँ राज्य सभा में सत्तारूढ़ भाजपा अल्पमत में है। लेकिन दोनों देश आर्थिक, सामरिक और विदेश नीति में सहयोग अधिक प्रगाढ़ करने के लिए तत्पर हैं। मोदी सरकार को पूरी उम्मीद है कि ओबामा के इस दौरे के बाद देश में अमेरिकी निवेश बढ़ेगा। इस दौरे में कई मुद्दों पर चर्चा होगी और दोनों देशों के संबंध सार्थक दिशा में आगे बढ़ेंगे। दोनों देशों ने उन मुद्दों के साफ संकेत दे दिये हैं, जिन पर चर्चा होनी है और सारभूत पहल होगी। 

नाभिकीय समझौता : मनमोहन सिंह सरकार ने अमेरिका से ऐतिहासिक नाभिकीय संधि की थी, लेकिन मूलतः ‘दायित्व प्रावधान’ के कारण यह संधि कोमा में चली गयी। दूसरी अहम अड़चन यह है कि अमेरिकी सरकार भारतीय नाभिकीय संयंत्रों के निरीक्षण का अधिकार चाहती है। मोदी सरकार को पूरी उम्मीद है कि अमेरिकी राष्ट्रपति अपने कार्यकारी अधिकारों का प्रयोग करते हुए इस संधि को फलीभूत करने के लिए ठोस पहल करेंगे। ‘भारतीय दायित्व प्रावधान’ में किसी परिवर्तन की उम्मीद कम है, क्योंकि विरोधी दलों का अभी राज्य सभा में बहुमत है। 

ट्रांसफर प्राइसिंग : इस मुद्दे के कारण अमेरिकी निवेश में बढ़ोतरी नहीं हो पा रही है। इस मुद्दे के निराकरण के लिए समझौता होने के पूरे आसार हैं। इससे ट्रांसफर प्राइसिंग के विवादों में राहत मिलेगी। अमेरिकी कंपनियों के खिलाफ लगभग 250 वाद सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट, आईटी आधारित सेवाओं, रॉयल्टी आदि के कारण चल रहे हैं। उम्मीद है कि एडवांस प्राइस समझौता होगा, जिससे इन तमाम विवादों से छुटकारा मिलेगा। भारत सरकार ऐसे समझौते कई जापानी कंपनियों से कर चुकी है। इसी तर्ज पर अमेरिका से समझौता होगा, और बाद में फ्रांस, यूके एवं अन्य यूरोपीय देशों से। इस समझौते का मुख्य लाभ शेल, आईबीएम, कैर्न इंडिया, वोडाफोन जैसी कंपनियों को मिलेगा, जिन पर 30,000 करोड़ रुपये के कर बकाया के वाद चल रहे हैं। 

रक्षा संबंध : चीन की बढ़ी ताकत और उपस्थिति से दोनों देश एक ही पलड़े में खड़े हुए हैं। उम्मीद है कि 10 वर्षीय रक्षा रणनीतिक साझेदारी समझौते का नवीकरण होगा। रक्षा क्षेत्र से संयुक्त उपक्रम और तकनीक साझा करने के लिए ठोस पहल की उम्मीद है। अमेरिका भारत को हथियार आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा देश है। जाहिर है भारत के बाजार को अमेरिका खोना नहीं चाहेगा। साल 2012 तक रूस भारत को हथियार आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा देश था। 

व्यापार संबंध : भारतीय कंपनियों को अमेरिकी सामाजिक सुरक्षा कानूनों के चलते अरबों डॉलर का नुकसान होता है। भारतीय कंपनियाँ अपने कर्मचारियों को काम के लिए वहाँ भेजती हैं तो उनकी सामाजिक सुरक्षा के मद में भारी भुगतान करना पड़ता है। वित्त मंत्रालय के सलाहकार अरविंद सुब्रहमण्यम के अनुसार यह राशि तीन अरब डॉलर है। तकनीकी भाषा में इसे टोटलाइजेशन समझौता कहा जाता है। पर इस मामले में किसी ठोस नतीजे की उम्मीद कम है। 

वीसा को लेकर अमेरिकी नीतियाँ कठोर हुई हैं। भारतीय आईटी कंपनियों की वहाँ अपने कर्मी रोकने में भारी दिक्कत आ रही है। लेकिन अमेरिका का रुख नरम पड़ने की उम्मीद कम है।

अमेरिकी कंपनियाँ चाहती हैं कि भारत में श्रम कानूनों में सुधार हो। कर्मचारियों को लेना और निकालना आसान बनाया जाये। इस संदर्भ में मोदी सरकार तेजी से पहल कर रही है। कई राज्यों में श्रम विरोधी कानून पास हो चुके हैं।

बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) को लेकर अमेरिका बहुत खिन्न है। लेकिन भारत सरकार अपना रुख छोड़ती है तो भारतीय दवा कंपनियों को भारी नुकसान होगा। आरएसएस, स्वदेशी जागरण मंच एवं भारतीय दवा उद्योग के भारी दबाव के चलते भारत सरकार नरम रुख नहीं दिखा पायेगी।

जलवायु परिवर्तन : अमेरिका ने जलवायु परिवर्तन के लिए भारत की सहमति को लेकर भारी दबाव बना रखा है। रेफ्रिजरेशन में इस्तेमाल होने वाली मौजूदा गैस के इस्तेमाल को खत्म करने के लिए चरणबद्ध कार्यक्रम चाहता है। मोदी अपने अमेरिकी दौरे में भारतीय रुख में परिवर्तन का संकेत दे चुके हैं। लेकिन अमेरिका ग्रीन फंड के लिए पर्याप्त राशि मुहैया नहीं करा पा रहा है। इसलिए कार्बन उत्सर्जन को लेकर किसी ठोस नतीजे की उम्मीद अमेरिका को फिलहाल नहीं है। लेकिन अमेरिका को मालूम है कि भारत जलवायु के कार्यक्रम के लिए तैयार हो जाये तो पेरिस में होने वाले जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन की अड़चनें काफी दूर हो जायेंगी। अमेरिका निवेश का लोभ देकर भारत के रुख में परिवर्तन कर सकता है। इसके लिए वह स्वच्छ ऊर्जा के अभियान का इस्तेमाल कर सकता है।

मोदी सरकार का लक्ष्य है कि 2022 तक एक लाख मेगावाट के अक्षय बिजली संयंत्र स्थापित हों, जिससे कार्बन उत्सर्जन की समस्या पर नियंत्रण हो सके। इसके लिए अमेरिका से भारी निवेश और टेक्नोलॉजी की दरकार भारत को होगी।

इस दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा भारत सरकार पर पूरा दबाव बनायेंगे कि भारत ईरान और रूस के साथ कड़ा रुख अख्तियार करे। लेकिन भारत के लिए अमेरिकी ख्वाहिश पूरा करना असंभव लगता है। आतंकवाद पर गहन सहयोग, साइबर सिक्योरिटी जैसे मुद्दों पर सार्थक पहल साझा बयानों में दिखाई देने की पूरी उम्मीद की जा सकती है।

(देश मंथन, 25 जनवरी 2015)

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