वही राग- वही रंग, फिर कैसे बदलेगा नीति आयोग?

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पुण्य प्रसून बाजपेयी, कार्यकारी संपादक, आज तक :

प्रधानमंत्री मोदी का नीति आयोग और पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के योजना आयोग में अंतर क्या है। मोदी के नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानागढ़िया और मनमोहन के योजना आयोग के मोंटक सिंह अहलूवालिया में अंतर क्या है। दोनों विश्व बैंक की नीतियों तले बने अर्थशास्त्री हैं।

दोनों के लिए खुला बाजार खासा मायने रखता है। वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ में काम करते हुए दोनों ने ही आर्थिक सुधार को ना सिर्फ खासा महत्वपूर्ण माना बल्कि भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देशो के लिए दोनों के लिए विकास की रेखा कंज्यूमर की बढ़ती तादाद से तय होती है।

दोनों ही डब्ल्यूटीओ की उन नीतियों का विरोध कभी ना कर सके जो बारत के किसान और मजदूरों के खिलाफ रही। दोनों ही खनिज संपदा को मुक्त बाजार या कहे मुक्त व्यापार से जोड़ने में खासे आगे रहे। फिर योजना आयोग से बदले नीति आयोग में अंतर होगा क्या।

महत्वपूर्ण यह भी है कि भारत में जितनी असमानता है और बिहार, यूपी, झारखंड सरीखे बीमारु राज्य की तुलना में महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे विकसित राज्य के बीच कभी मोंटक सिंह अहलूवालिया ने भी विकास को हर तबके तक पहुँचाने के लिए रि-डिस्ट्रीबेशन आफ डेवपेलपेंट की थ्योरी रखी।

और जिस नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए लोकसभा के चुनावी प्रचार में जुटे थे उस वक्त अरविन्द पनगारिया ने भी बकायदा भारत में विकास की असमानता को लकेर कई लेखों में कई सवाल उठाये।

फिर विश्व बैंक और आईएमएफ का नजरिया भारत को लेकर इन दोनो अर्थशास्त्रियों के काम करने के दौरान ही कितना जन विरोधी रहा है, यह मनमोहन सिंह के दौर में बीजेपी ने ही कई मौको पर उठाये।

और तो और संघ परिवार का मजदूर संगठन बीएमएस हो या स्वदेशी जागरण मंच दोनों ने ही हमेशा विश्व बैंक और आईएमएफ की नीतियों को लेकर वाजपेयी सरकार से लेकर मनमोहन सरकार तक पर सीधी चोट की है।

लेकिन अब सवाल योजना आयोग से नाम बदलकर नीति आयोग का है तो फिर सिर्फ अरविन्द पानागढ़िया का ही नहीं बल्कि मुक्त व्यापार के समर्थक रहे अर्थशास्त्री डॉ.विवेक देवराय का भी सवाल है जो आर्थिक मुद्दों पर मनमोहन सिंह के दौर में सुझाव देते आये है और इन अहम सुझावों को कभी बीजेपी ने सही नहीं माना। या कहे कई मौको पर खुलआम विरोध किया।

दरअसल, डॉ. विवेक देवराय स्थायी समिति के सदस्य चुने गये है। और डॉ. देवराय इससे पहले की सरकार में विदेशी व्यापार, आर्थिक मसले और कानून सुधार के मुद्दों पर सलाहकार रह चुके हैं। यानी मनमोहन सरकार के दौर की नीतियों का चलन यहा भी जारी रहेगा तो सवाल है बदलेगा क्या।

वैसे भी जमीन अधिग्रहण से लेकर मजदूरों के लिए केन्द्र सरकार की नीतियों से संघ परिवार में भी कुलबुलाहट है। जिस तरह मुआवजे के दायरे में जमीन अधिग्रहण को महत्व दिया जा रहा है और मजदूरों को मालिकों के हवाले कर हक के सवाल को हाशिये पर ढ़केला जा रहा है उससे संघ के ही भारतीय मजदूर संघ सवाल उठा रहा है।

सवाल यह भी है कि खुद नरेन्द्र मोदी ने पीएम बनने के बाद संसद के सेंट्रल हाल में अपने पहले भाषण में ही जिन सवालों को उठाया और उसके बाद जिस तरह हाशिये पर पड़े तबकों का जिक्र बार बार यह कहकर किया कि वह तो छोटे छोटे लोगों के लिए बड़े-बड़े काम करेगें तो क्या नयी आर्थिक नीतियाँ वाकई बड़े-बड़े काम छोटे-छोटे लोगों के लिए कर रही है या फिर बड़े-बड़े लोगों के लिए।

क्योंकि देश की एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, जो कम होगी कैसे इसकी कोई योजना नीतिगत तौर पर किसी के पास नहीं है। बड़े पैमाने पर रोजगार के साधनों को उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी राज्य पर है, लेकिन रोजगार कॉरपोरेट और उद्योगपतियों के हाथ में सिमट रहा है और पहले ना मनमोहन सिंह कुछ बोले और ना ही अब कोई बोल रहा है। गरीबों के लिए समाज कल्याण की योजनाएँ सरकार को बनानी हैं।

लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में सारी योजना तो अब सारी नीतिया कल्याणकारी पैकेज में सिमट रही हैं। ऐसे में नीति आयोग क्या अपने उद्देश्यों पर खरा उतरेगा, यह बड़ा सवाल है और खास कर तब जब देश को एक तरफ घर वापसी में उलझाया गया है और दूसरी तरफ आर्थिक सुधार की नीतियों की रफ्तार मनमोहन सिंह से भी ज्यादा रफ्तार वाली हो चली है।

(देश मंथन, 6 जनवरी, 2015)

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