सामने आयी शांति भूषण के भीतर रुकी सच्चाई

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डॉ. रंजन ज़ैदी, वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक :

शांति भूषण जी पुराने समाजवादियों में से हैं। प्रोफेशनल अधिवक्ता। ईमानदार लोगों में डूबता सितारा। डूबता इसलिए कि जिसने ‘आम आदमी पार्टी’  को जन्म दिया उसी में उसकी उपेक्षा कर दी गयी।  

अंतिम दिनों में गांधी जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। 

शांति भूषण जी जब कुछ कहते हैं तो उसके माने होते हैं। किरण बेदी के बारे में उन्होंने जो कुछ कहा, उनके भीतर रुकी हुई वह सच्चाई थी जिसे आज के संदर्भ में मैं भी पसंद करता हूँ। शांति भूषण जी के वक्तव्य को उनके मन की पीड़ा कह सकते हैं। 

एक दर्द यह है कि किरण बेदी कभी भी भाजपाई या सांप्रदायिक नहीं हो सकतीं। कांग्रेस के समय में अपना नुकसान उठा कर भी उन्होंने इस तरह के समझौते नहीं किये। बीजेपी के शासनकाल में भी नहीं। इसीलिए उनके साथ प्रशासनिक अन्याय होता रहा। शांति भूषण जी एक किताब की तरह किरण को पढ़ते और जानते रहे हैं। कुछ कमियाँ भी रही होंगी। परिस्थितिवश हर एक में कुछ कमियाँ कमजोरियाँ हो ही जाती हैं, किरण में भी रही होंगी। लेकिन उनके कार्यों पर नजर डालें तो वे माने नहीं रखतीं। 

यदि वे आम आदमी पार्टी में ससम्मान होतीं तो पार्टी का कद बढ़ता। शुरू-शुरू में बहुत से कद्दावर लोग इससे जुड़े भी थे। फिर निकलते चले गये। कारण यह था कि यह संस्कारहीन ‘कॉलेज यूनियन की पार्टी’ सी होकर रह गयी थी। इसीलिए इसमें बुजुर्गों का अकाल सा पड़ गया। राग दरबारियों की तूती बोलने लगी। आज भी इस पार्टी को संजीदा लोग संजीदगी से नहीं ले रहे हैं, क्योंकि इसमें संजीदा लोग हैं ही नहीं। भागने का जो ‘ड्रामा’ हुआ था वह भी उसका सबूत था। 

शांति भूषण जी चाहते थे किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण एक प्लेटफॉर्म पर आगे बढ़ें। लेकिन हुआ यह कि आंदोलित सेना आगे आ गयी और बड़ा उद्देश्य पीछे रह गया। 

शांति भूषण जी का विराट अनुभव जानता है कि किरण बेदी एक अनुशासित एवं ट्रेंड प्रशासनिक अफसर रही हैं, इसलिए यदि (संयोग से) दिल्ली की कमान उन्हें मिल गयी तो वे कुछ अच्छा काम कर जायेंगी। लेकिन एक डर भी बना हुआ है कि क्या बीजेपी उन्हें ऐसा करने का अवसर दे सकेगी? याद रहे, राजनीति और अफसरशाही की हैसियत में जमीन-आसमान का अंतर हुआ करता है। राजनीति अपने स्वार्थों को खुश कर आगे बढ़ती है, जबकि अफसरशाही कानून की पटरियों पर दौड़ना पसंद करती है। किरण बेदी सिद्धहस्त राजनेता कभी नहीं बन पायेंगी।

अरविंद केजरीवाल ‘हुनूज दिल्ली दूरस्त’। अभी दिल्ली दूर है। उन्हें चाहिए कि शांति भूषण जी को सम्मान दें, उनके विचारों का सम्मान करें। वे भी अपने समय की राजनीति का एक युग हैं। यह समय ऐसा नहीं है कि बड़ों की उपेक्षा की जाये और विवादों को माचिस दिखायी जाये। 

(देश मंथन, 23 जनवरी 2015) 

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