जो धर्म डराए, जो किताब भ्रम पैदा करे, उसे शिद्दत से सुधार की जरूरत!

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अभिरंजन कुमार, पत्रकार :

जो कट्टरपंथी हैं, वे भी उसी एक किताब से हवाले दे रहे हैं। जो पढ़े-लिखे, उदारवादी और प्रगतिशील हैं, वे भी उसी एक किताब के सहारे सारी थ्योरियां पेश कर रहे हैं।

बड़े से बड़ा क्रांतिकारी भी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा कि भाड़ में जाए तुम्हारी किताब… नये दौर में, नई सदी में, नये मुल्क में, नई दुनिया में, नई परिस्थितियों में अपने बच्चों, अपनी औरतों, अपने नौजवानों की बेहतरी के लिए हमें जो भी ठीक लगेगा, हम उसे अपनाएंगे, न कि तुम्हारी पुरानी किताब की लकीर के फकीर बने रहेंगे।

मुझे हैरानी होती है। जब आपका सारा ज्ञान महज एक किताब तक सिमटकर रह जाये, और आप इसी की व्याख्या के सहारे हर चीज को सही या गलत ठहराते रह जाएं, या फिर इसके आगे-पीछे सोचने-समझने का विवेक ही अपने भीतर पैदा न कर पाएं, तो फिर आप एक ठहरा हुआ तालाब हैं, जिसकी सतह पर नये विचारों का एक भी ढेला फेंक दें, तो आस-पास बदबुओं का तूफान उमड़ आता है। और माफ कीजिएगा, इसी बदबू को आप इत्र समझे भीतर ही भीतर एक झूठा गुमान पाले बैठे हैं।

यह ब्रह्मांड अनंत है और विविधता प्रकृति का बुनियादी तत्व है। जब हम इस विविधता को समझने लगते हैं, तभी हमारे भीतर लोकतंत्र, मानवता, उदारता और प्रगतिशीलता का प्रादुर्भाव होता है। जिस समाज में विविधता के लिए जितनी जगह होती है, उस समाज में उतनी उदारता होती है और वह लोकतंत्र को अपनाने के लिए उतना तैयार होता है। भाषा-बोली, ज्ञान-विज्ञान, पहनावा-ओढावा, खान-पान, ग्रंथों-किताबों, इष्टदेवों-महापुरुषों, पूजा-पद्धतियों, रीति-रिवाजों और मान्यताओं इत्यादि की विविधता हमें बताती है कि न तुम अंतिम हो, न तुम्हारे विचार अंतिम हैं।

और कहने की बात नहीं कि विविधता के प्रति इसी आदर-भाव के चलते भारतीय आत्मा वाले बहुसंख्य लोग सहिष्णु और उदारवादी होते हैं। यहाँ कोई एक किताब, एक खुदा, एक भाषा, एक तीर्थ हमें हाँक नहीं सकता। जिसे “ए” भगवान अच्छे लगते हैं, वह “ए” की पूजा करता है। जिसे “बी” भगवान अच्छे लगते हैं, वह “बी” की पूजा करता है। जिसे सभी अच्छे लगते हैं, वह सभी की पूजा करता है। जिसे कोई अच्छा नहीं लगता, वह किसी की पूजा नहीं करता। बहुसंख्य भारतीय आस्तिक भी हो सकते हैं, नास्तिक भी हो सकते हैं। एकेश्वरवादी भी हो सकते हैं, 33 करोड़ देवी-देवताओँ को मानने वाले भी हो सकते हैं।

मेरे दादा ने मुझे बताया था कि धर्म की सीख लेने के लिए किसी खास किताब की जरूरत नहीं पड़ती। कई लोग वेद, पुराण, उपनिषद पढ़कर भी धर्म को नहीं समझ पाते, जबकि कई लोग रहीम, कबीर के दोहे पढ़कर ही धर्म सीख लेते हैं। हमारे यहां लोग किताबों के प्रति कट्टर नहीं होते, इसीलिए वेद, पुराण, रामायण, महाभारत की अनगिनत टीकाएं लिखी जा चुकी हैं। यहाँ तक कि अपनी-अपनी श्रद्धा और समझ के मुताबिक लोग इनकी कहानियों में भी फेरबदल कर लेते हैं। और तो और… मनुस्मृति जैसी किताबों को तो असहमत लोग आए दिन जलाते ही रहते हैं, लेकिन धर्म इनके पीछे डंडा लेकर नहीं पड़ा रहता।

जब भी धर्म को आप हर व्यक्ति के पीछे डंडा लेकर लगा देंगे, तो समाज में सुधार के रास्ते अपने आप बंद हो जाएंगे। दुनिया में हर विषय पर वाद-विवाद-संवाद होते रहना चाहिए। इनमें धर्म भी एक विषय मात्र ही है। धर्म की भारतीय अवधारणा अत्यंत लचीली है और मेरी राय में पूरी दुनिया को इसपर विचार करना चाहिए। धर्म आतंक में तब्दील न होने पाए, इसीलिए हमने “मानो तो देव, नहीं मानो तो पत्थर” और “मन चंगा तो कठौती में गंगा” जैसी अवधारणाएं गढ़ी हैं।

याद रखिए, थोपेंगे तो धर्म बदनाम होगा। लोग स्वाभाविक श्रद्धा से इसे मानेंगे तो मजबूत होगा। धर्म का काम डराना नहीं, डर मिटाना है। किताब का काम भ्रम पैदा करना नहीं, भ्रम को दूर करना है। इसलिए जो धर्म आपको डराए, जो किताब आपमें भ्रम पैदा करे… उस धर्म और उस किताब में शिद्दत से सुधार की जरूरत है। अगर आप उन्हें सुधारेंगे नहीं, तो आपके कट्टर विचारों और हठधर्मिता के बावजूद धीरे-धीरे वे मिट जाएंगे, क्योंकि धरती पर हमेशा मनुष्यता ही विजयी होगी, क्योंकि मनुष्य ने धर्म बनाए हैं, धर्म ने मनुष्य नहीं बनाया है।

(देश मंथन, 26 अप्रैल 2017)

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