नवेली दुल्हन सा सिंगार किए पटवा हवेली

0
463

विद्युत प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार:  

जैसलमेर की पटवा हवेली। शहर की सभी पुरानी हवेलियों में सबसे समृद्ध। वैसे तो जैसलमेर के टूरिस्ट मैप में पटवा हवेली, नाथमल की हवेली, सलीम सिंह की हवेली जैसे कई नाम गिनाए जाते हैं।

पर हमारे टैक्सी ड्राईवर राजू चौधरी ने कहा था कि आप पटवा हवेली देख लेंगे तो बाकि हवेलियां देखना जरूरी नहीं रह जाएगा।

वह हमें जैन मंदिर से पहले छोड़ देते हैं। पतली गलियों में आटो रिक्शा चले जाते हैं टैक्सियाँ नहीं जाती। थोड़ा पैदल चलकर हमलोग पटवा हवेली पहुंच गये। रास्ते में मिलने वाली सभी हवेलियों में लकड़ी के विशाल द्वार बने हैं।

सौ साल से ज्यादा पुरानी पटवा हवेली किसी नवेली दुल्हन सी आपका स्वागत करती नजर आती है। सर्दियों की चटख धूप में हवेली का सौंदर्य और भी बढ़ जाता है। पटवा हवेली वास्तुकला का दिलचस्प नमूना है। यह हवेली पाँच छोटे-छोटे कलस्टर में बनी है। पहली हवेली को निजी संग्रहालय का रूप दिया गया है। इसके बाद वाले हिस्से में सरकारी संग्रहालय है। हवेली वाली गली में राजस्थानी कला शिल्प का जीवंत बाजार है। बैठकर सुस्ताने केलिए बेंचे बनी है। राजस्थानी परिधान किराये पर देने वाले यहाँ पर कई हैं। 

यहाँ पर लोग अति उत्साह से राजस्थानी लिबास में बनी ठनी बनकर हवेली के झरोखे के साथ फोटो खिचंवाते नजर आते हैं। फुटपाथ पर टी शर्ट, लेडिज पर्स, हैंडबैग से लेकर कठपुतलियों की दुकानें सजी हैं। आप खरीदें या नहीं पर यहाँ बैठकर कुछ घंटों का टाइम पास कर सकते हैं। पटवा हवेली में प्रवेश का टिकट 100 रुपये का है। पर अंदर जो कुछ भी देखने लायक है उसके लिए यह 100 रुपये का टिकट ज्यादा नहीं है।

पटवा हवेली को गुमन चंद पटवा ने साल 1805 ई में अपने पाँच बेटों के लिए बनवाया गया था। पटवा परिवार का कारोबार सिंध, बलूचिस्तान से लेकर पश्चिम एशिया तक फैला हुआ था। कीमत लकड़ी, मसाले और अफीम का कारोबार कर उन्होंने काफी धन कमाया था। कहा जाता है कि पटवा परिवार को एक जैन संत ने जैसलमेर छोड़ने की सलाह दी थी। वे जैसलमेर से बाहर गए और उनका कारोबार खूब बढ़ा। बाद में लाला गुमनचंद पटवा संत की सलाह को दरकिनार करते हुए अपनी मिट्टी के पास वापस आए। यहां उन्होने अपने पाँच बेटों के लिए पांच अलग अलग हवेलियां बनवाना तय किया।

पटवा परिवार के बारे में कहा जाता है कि जैसलमेर से बाहर उनका कारोबार चरम पर था, पर जैसलमेर में निवास करने पर उनका कारोबार फिर घटने लगा। एक बार फिर परिवार जैसलमेर छोड़कर चला गया। गुमनचंद पटवा बाफना गोत्र के जैन थे। पटवई उनका पेशा था जिसका मतलब होता है गूंथना। परिवार सोने और चाँदी के तारों का जरी का काम करता था। जैसलमेर के राजा ने उन्हे पटवा की उपाधि दी थी।

पटवा हवेली के निर्माण में पीले बलुआ पत्थरों का इस्तेमाल किया गया है। इन इमारतों के निर्माण में 50 साल लग गये। उस समय हवेली के निर्माण का कुल खर्च आया था 10 लाख रुपये। हालांकि पटवा हवेली को देखते हुए लगता है कि इसका निर्माण किसी वास्तुविद से डिजाइन करवाकर नहीं कराया गया।

हवेली के निर्माण के बारे में कहा जाता है कि पटवा परिवार के पास जैसे जैसे पैसा आता गया हवेली रूप लेती चली गई। इसलिए इसकी आंतरिक बनावट बिल्कुल अनगढ़ है। पर हवेली के अंदर रखे संग्रह को देखकर आंखे चौंधिया जाती हैं। हवेली के हर कोने में हर मंजिल पर कारोबारी परिवार का राजशी ठाठ नजर आता है। उनका संगीत प्रेम, उनका कपड़ों के प्रति प्रेम नजर आता है। 

पटवा हवेली के अग्रभाग में बारीक नक्काशी देखने को मिलती है। विविध प्रकार की कलाकृतियों से युक्त खिड़कियों, छज्जे और रेलिंग आपका मनमोह लेती हैं। 

भूल भुलैया है हवेली 

पटवा हवेली में प्रवेश की सीढ़ियाँ काफी संकरी हैं। ये हवेली एक तरह से भूल भुलैया है। सबसे ऊपर की मंजिल पर पहुँचने के बाद आपको एकबारगी नीचे आने का रास्ता नजर नहीं आता है। तब हवेली में मौजूद स्टाफ से मदद लेनी पड़ती है। हवेली के अंदर आप पटवा परिवार द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली विविध वस्तुओं का संग्रह देख सकते हैं। यह ड्रेसिंग, टेबल, रसोई के सामान और शानदार बिस्तर से लेकर इस्तेमाल किए जाने वाले बरतनों के रूप में है। इसके उनके वैभव और ऐश्वर्य का पता चलता है।

रसोई घर में इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तन से लेकर बेडरूम, साड़ियाँ, कपड़े और वाद्ययंत्रों का भी अनूठा संग्रह है इस हवेली में। आजकल पटवा हवेली की पहली और मुख्य हवेली मालिक एक कारोबारी कोठारी परिवार है। जीवनलाल कोठारी के परिवार ने इसे संग्रहालय का रूप प्रदान किया है। हवेली के आधार तल राजस्थानी साड़ियों लहंगों और कपड़ों की दुकान भी है।

खुलने का समय 

दर्शकों के लिए पटवा हवेली सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक खुली रहती है। इसके प्रवेश टिकट 100 रुपये का है। कैमरे का इस्तेमाल करने के लिए अलग से शुल्क है। हवेली के बगल में एक सरकारी संग्रहालय भी है। इसका प्रवेश शुल्क 50 रुपये है। आप चाहें तो दोनों देख सकते हैं। पटवा हवेली देखकर भी मन नहीं भरा हो और आपके पास समय है तो आसपास की तीन और हवेलियां देख सकते हैं। इनमें हवेली सलीम सिंह प्रमुख है। 

यहाँ दलालों से रहें सावधान

पटवा हवेली में घूमते हुए दलालों और गाइडों से तनिक सावधान रहें। वास्तव में आपको कोई गाइड करने की जरूरत नहीं है। 

आप संकेतक के सहारे सब कुछ देख समझ सकते हैं। यहां बिकने वाले उत्पादों के लोभ में भी न आएं। वे मोटे कमीशन पर बेचे जाते हैं। 

हाँ! आप चाहें तो हवेली का बाहर स्ट्रीट मार्केट से शॉपिंग कर सकते हैं। यहाँ वाजिब कीमत पर चीजें उपलब्ध हैं। खास तौर पर यहाँ से राजस्थानी हस्तशिल्प की वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं। ये यहाँ पर दिल्ली मुंबई की तुलना में सस्ती मिलती हैं। कई कलाकार यहाँ पर लाइव कलाकृतियों का निर्माण करते भी दिखाई दे जाते हैं। खास तौर पर आप यहाँ शिल्पियों को लकड़ी की मूर्तियाँ गढ़ते हुए देख सकते हैं। 

(देश मंथन,  29 अप्रैल 2017)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें