राजनीति बतर्ज मुख्तार अन्सारी

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क़मर वहीद नक़वी, पत्रकार :

पार्टियाँ न दाग देखती हैं, न धब्बा, बस बाहुबल, धनबल, धर्म, जाति के समीकरणों की गोटियाँ बिठाती हैं। आपको हैरानी होगी जान कर कि अभी उत्तराखंड में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने पूरा जोर लगा कर बीजेपी के जिस नेता को काँग्रेस का टिकट दिलवाया है, उसके खिलाफ काँग्रेस की ही सरकार ने 2012 में साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया था! बीजेपी भी पीछे नहीं है।

उसने इन विधानसभा चुनावों में दूसरी तमाम पार्टियों के ऐसे लोगों को टिकट बाँटे हैं, जिन के खिलाफ वह खुद बड़े गम्भीर आरोप लगाती रही है। यह राजनीति का अवसरवाद है। जीतो चाहे जैसे भी। सरकार बनाओ चाहे जैसे भी।

हमने इसी हफ्ते गणतंत्र की 68वीं सालगिरह बड़ी धूमधाम से मनायी है। राजपथ पर देशभक्ति हिलोरें मार रही थी। देश की तरक्की का, हमारी सैन्य ताकत का, हमारे हौसलों का क्या शानदार नजारा था, क्या जज्बा था। ऐसे में अजीब नहीं लगता कि इस हफ्ते की बात हम मुख्तार अन्सारी से शुरू करें! बात अजीब तो है, लेकिन क्या करें? गणतंत्र के 68वें साल में हमारे सामने राजनीति की जो झाँकियाँ हैं, मुख्तार अन्सारी उन्हीं में से एक झाँकी हैं। 

क्या विडम्बना है कि पिछले तीन-चार महीनों में उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे बड़ी उथल-पुथल किसी राजनीतिक मुद्दे पर नहीं, बल्कि मुख्तार अन्सारी के नाम पर हुई। बेटे को बाप के खिलाफ बगावत करनी पड़ी, समाजवादी पार्टी टूट के कगार तक पहुँच गयी। क्यों? इसीलिए न कि मुलायम-शिवपाल खेमा बाकी हर बात से आँखें मूँद कर मुख्तार अन्सारी में मुसलिम वोट बैंक की चाभी देख रहा था। 

और जब अखिलेश की जिद की वजह से समाजवादी पार्टी के दरवाजे मुख्तार अन्सारी के लिए नहीं खुले तो मायावती की बीएसपी ने मुख्तार को हाथोंहाथ ले लिया।

हर पार्टी में हैं मुख्तार अन्सारी के छोटे-बड़े संस्करण

और सिर्फ माया, मुलायम ही क्यों, याद कीजिए कि 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान अरविन्द केजरीवाल की लार भी मुख्तार के लिए टपकी थी। यह और बात है कि चौतरफा आलोचनाओं के बाद केजरीवाल ने अपने हाथ खींच लिये थे। क्यों? आदर्शों की राजनीति का ढिंढोरा पीटने वाले केजरीवाल को मुख्तार अन्सारी में सुरखाब के कौन-से पर दिखे थे? 

मुख्तार अन्सारी अकेले नहीं हैं और वह इस लेख का मूल विषय नहीं हैं। उनके जैसे सैंकड़ों बाहुबली कमोबेश हर छोटी-बड़ी पार्टी में सुशोभित हैं। आँकड़े कहते हैं कि देश के एक तिहाई सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं और इनमें से 20% पर तो संगीन जुर्म के मामले दर्ज हैं। आपराधिक छवि के विधायकों के मामले में भी हालत लगभग ऐसी ही है।

न दाग, न धब्बा, बस जिताऊ बन्दा चाहिए

ऐसा क्यों? इसलिए कि बस वोट मिलें, जैसे भी मिलें। पार्टियाँ न दाग देखती हैं, न धब्बा, बस बाहुबल, धनबल, धर्म, जाति के समीकरणों की गोटियाँ बिठाती हैं। 

आपको हैरानी होगी जानकर कि अभी उत्तराखंड में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने पूरा जोर लगा कर बीजेपी के जिस नेता को काँग्रेस का टिकट दिलवाया है, उसके खिलाफ काँग्रेस की ही सरकार ने 2012 में साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया था! 

बीजेपी भी पीछे नहीं है। उसने इन विधानसभा चुनावों में दूसरी तमाम पार्टियों के ऐसे लोगों को टिकट बाँटे हैं, जिन के खिलाफ वह खुद बड़े गम्भीर आरोप लगाती रही है। यह राजनीति का अवसरवाद है। जीतो चाहे जैसे भी। सरकार बनाओ चाहे जैसे भी। 

यह हमारी राजनीति की विडम्बना है। जब तक दूसरी पार्टी में, तब तक बन्दा दागी है, अपनी पार्टी में आते ही धवलकान्ति हो जाता है। बस जिताऊ हो, फिर सब ठीक है। और जिताऊ वह इसीलिए होता है कि लोग उसे वोट देते हैं। और वोट कौन देता है? 

हम आप ही तो तमाम दागी नेताओं को वोट देते हैं और जिताते हैं! और फिर विडम्बना यह कि हम उनसे ही उम्मीद करते हैं कि वह भ्रष्टाचार खत्म करेंगे, साफ-सुथरा शासन देंगे! तो गलती किसकी है? नेताओं की या हमारी?

राजनीति में जैसे लोग, वैसा शासन

और शासन तो वैसा ही होगा, जैसे लोग राजनीति में होंगे। किसी को ऊँचे पद पर पहुँचने का अवसर मिले तो वह कहाँ तक उसका बेजा फायदा उठा सकता है, अब इसकी कोई हद बाकी नहीं रह गयी है। अभी मेघालय के राज्यपाल को हटना पड़ा। शिलांग राजभवन के करीब सौ कर्मचारियों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख कर आरोप लगाया था कि राज्यपाल महोदय ने राजभवन को ‘यंग लेडीज क्लब’ में बदल दिया है! शर्मनाक। 

लेकिन फिर बताऊँ कि वह अकेले नहीं हैं। ऐसे आरोप पहले भी लग चुके हैं और पूरे सबूतों के साथ लग चुके हैं।ऐसे मामले उठने के बाद पद छोड़ना पड़े, यह अलग बात है, लेकिन ऐसे महानुभावों का ‘सम्मान’ तो बना ही रहता है। उनकी पार्टी में भी और जरूरत पड़ने पर दूसरी पार्टियाँ भी पलक-पाँवड़े बिछा देती हैं।

राजनीतिक चन्दों का मामला

अब अगली बात। शायद आपको याद होगा कि राजनीतिक चन्दों का मामला नोटबंदी के बाद तेज़ी से उठा था। फिर दब गया। अब ‘एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक राइट्स’ यानी एडीआर की बड़ी चौंकाने वाली रिपोर्ट आयी है। आश्चर्य है कि इस पर कहीं कोई शोर नहीं हुआ। 

रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले दस सालों में देश की सभी राजनीतिक पार्टियों को ग्यारह हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का जो चन्दा मिला, उसका 69% प्रतिशत हिस्सा बेनामी है। इसमें काँग्रेस को 83% का बेनामी चन्दा और बीजेपी को 65% बेनामी चन्दा मिला। और दिलचस्प बात यह है कि पारदर्शी राजनीति का नारा लगानेवाली आम आदमी पार्टी का भी 57% चन्दा बेनामी है। 

आम आदमी पार्टी ने शुरू में तो हर चन्दे का ब्योरा अपनी वेबसाइट पर डाला था, लेकिन बाद में वह भी राजनीति के रंग में रंग गयी और उसने ऐसा करना बन्द कर दिया। मौका देख रंग बदल लेना, यह भी उसी अवसरवाद का हिस्सा है।

आधार कार्ड से लीजिए राजनीतिक चन्दा

कानूनन तो इन राजनीतिक दलों ने कोई गलत काम नहीं किया। क्योंकि कानून कहता है कि बीस हजार रुपये से कम का चन्दा देने वालों के नाम का रिकॉर्ड रखने की उन्हें जरूरत नहीं है। लेकिन यह कानून बनाया किसने? इन राजनीतिक दलों ने ही। सवाल यह है कि राजनीतिक दलों को बेनामी चन्दा लेना ही क्यों चाहिए। पिछले ही दिनों मैंने इसी स्तम्भ में लिखा था कि राजनीतिक दल व्यक्तियों से जो चन्दा लें, उसके लिए आधार कार्ड को जरूरी बनाया जाये। क्या आप इस सुझाव से सहमत हैं? 

अगर राजनीतिक दल कोई गोलमाल नहीं करते, तो ऐसा करने में उन्हें एतराज होना ही नहीं चाहिए। लेकिन यह तो तब हो, जब राजनीति में ‘नीति’ यानी नैतिकता बची हो।

‘नीति’ का गायब होना राजनीति से

राजनीति से ‘नीति’ का गायब होना हमेशा एक ऐसी अवसरवादी राजनीति को जन्म देता है, जिसे तमाम अनचाहे समझौते करने पड़ते हैं और जिसके दूरगामी नतीजे होते हैं। 

अभी जलीकट्टू का ही मामला लीजिए। जनभावनाओं के ज्वार के सामने राज्य और केन्द्र की सरकारों ने ‘नीति’ को ताक पर रख दिया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी करने के लिए अध्यादेश आ गया, और जलीकट्टू मना लिया गया। 

क्या शाहबानो मामले में ऐसा ही नहीं हुआ था। तब के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू कराना चाहते थे, लेकिन मुस्लिम वोट बैंक के दबाव के आगे झुक गये। या शायद डर गये कि अगर इस मामले पर हालात बेकाबू हो गये, तो उससे कैसे निबटेंगे। इसलिए कोर्ट के फ़ैसले को बेअसर करने के लिए नया कानून ले आये। 

जलीकट्टू के मामले में भी ठीक यही हुआ। राज्य और केन्द्र की दोनों सरकारें तो झुकीं ही, कोई भी राजनीतिक दल जलीकट्टू का विरोध करने का साहस नहीं दिखा पा रहा है। अभिषेक मनु संघवी पशुओं की रक्षा जैसे मुद्दों को लेकर वर्षों से सक्रिय हैं। लेकिन जलीकट्टू के विरोध में मुकदमा लड़ने से उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया। क्योंकि इससे उनकी पार्टी काँग्रेस को राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ता। हालाँकि तमिलनाडु की राजनीति में काँग्रेस किसी गिनती में नहीं है, फिर भी वह ऐसे भावनात्मक मुद्दे पर कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं है। 

ऐसा क्यों हो रहा है? सिर्फ इसलिए कि आज किसी राजनेता या राजनीतिक दल के पास कोई नैतिक बल नहीं है। ऐसे में मोहनदास कर्मचन्द गाँधी शिद्दत से याद आते हैं। जब देश भीषण साम्प्रदायिक दंगों की वीभत्स हिंसा से झुलस रहा था, तो यह गाँधी के उपवास का ही नैतिक बल था कि हिंसक हाथों को थमना पड़ा। इसलिए राजनीति में ‘नीति’ का लौटना जरूरी है। सोचिएगा इस बारे में।

(देश मंथन, 05 फरवरी 2017)

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