देता है बोसा, बगैर इल्तिजा किए!

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डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक :

न भाजपा ने कहा और न ही नरेंद्र मोदी ने! दोनों ने ही नहीं कहा कि हमें आपसे संबंध बढ़ाने हैं लेकिन फिर भी ओबामा प्रशासन बधाइयाँ भेज रहा है। भारत की दाढ़ी सहला रहा है। मुझे गालिब की एक पंक्ति इस मौके पर याद आ रही है।

‘देता है बोसा बगैर इल्तिज़ा किए।’ बिना मांगे ही अमेरिका भारत को चुंबन दे रहा है। अभी 16 वीं लोकसभा का चुनाव-परिणाम आया भी नहीं हैं। अभी से अमेरिका के राष्ट्रपति और विदेश मंत्रालय को भावी सरकार के बारे में अपनी प्रतिक्रिया देने की जरूरत क्या है? वे नरेंद्र मोदी का नाम नहीं ले रहे हैं, जैसे हमारे गाँवों की स्त्रियाँ अपने पतियों का नाम नहीं लिया करती थीं लेकिन वे अपने शुभकामना-संदेश सीधे नरेंद्र मोदी को ही भेज रहे हैं। विभिन्न एक्जिट पोलों ने उनकी हड्डियों में कंपकंपी दौड़ा दी है।

यह वही अमेरिका है, जिसने 2005 में नरेंद्र मोदी का वीजा रद्द किया था। पारपत्र पर पहले से छपे इस वीज़ा को इसलिए रद्द किया गया था कि नरेंद्र मोदी पर अमेरिकी सरकार का आरोप था कि उसने गुजरात में कई लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता को भंग किया था। दूसरे शब्दों में अमेरिका ने अपने आप को सारी दुनिया का चौधरी बना लिया था। वह भारत के आतंरिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप कर रहा था। ऐसे हस्तक्षेप का मुँहतोड़ जवाब दिया जाना चाहिए था लेकिन कौन देता? भारत सरकार के मुँह में जुबान होती तो वह जवाब देती। अमेरिकी सरकार का दुस्साहस इतना बढ़ गया कि उसने घोषणा कर दी कि मोदी आवेदन करेंगे तो उन्हें नया वीज़ा नहीं दिया जायेगा। मोदी ने आवेदन नहीं किया लेकिन मियां की जूती मियां के सिर दे मारी। उन्होंने अहमदाबाद में बैठे-बैठे ही लाखों प्रवासी भारतीयों को ‘स्काइप’ द्वारा संबोधित कर दिया। साल भर से मोदी-लहर को देखनेवाले अमेरिका ने अपनी राजदूत नैंसी पावेल को मोदी से मिलने गुजरात भेजा और मोदी के वीज़ा पर गोलमोल लेकिन खुशामदी वक्तव्य जारी किया जबकि चीन और जापान जैसे देशों ने मोदी की यात्राओं के दौरान उनके साथ लगभग वही बर्ताव किया, जो प्रधानमंत्रियों के साथ किया जाता है। अमेरिका के भोले नीति-निर्माताओं पर उस समय हमारे वामपंथियों, सांप्रदायिक तत्वों और सत्तारुढ़ दल के मसखरों का इतना दबाव बढ़ गया कि उन्होंने वैसा दुस्साहस कर दिखाया लेकिन अब भारत की जनता के दबाव के आगे ओबामा और स्टेट डिपार्टमेंट को नतमस्तक होना पड़ रहा है।

जाहिर है कि अमेरिका के पास नरेंद्र मोदी सरकार से उत्तम संबंध बनाये रखने के अलावा कोई चारा नहीं है। अमेरिका को पता है कि यह नया प्रधानमंत्री न तो किसी का जी-हुजूर होगा और न ही दब्बू! उसके साथ सम्मानपूर्ण ढंग से ही बर्ताव करने में अमेरिका का फायदा है। अमेरिका के इस नवीन पैंतरे ने सिद्ध कर दिया है कि उसका मोदी-विरोधी रवैया शुद्ध सैद्धांतिक नहीं था, बल्कि निहित स्वार्थों की साजिश का परिणाम था। अब बदले हुए रवैये का स्वागत!

(देश मंथन, 15 मई 2014)

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