राजनीतिक दलों को पुरानी छूट पर नया बवाल

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राजीव रंजन झा :

अचानक एक खबर आयी और नोटबंदी का विरोध करने वाले चेहरे मानो जीत के एहसास से खिल उठे – देखो, हम कहते थे ना कि काला धन रखने वाले नेताओं का कुछ नहीं बिगड़ेगा।

नोटबंदी के समर्थन में लगे लोग मुरझा गये – हाय, क्या इसीलिए हमने इतनी तकलीफें सह कर और विरोधियों के ताने सुन-सुन कर नोटबंदी का समर्थन किया कि मोदी राजनेताओं को अपना काला सफेद करने का खुल्ला रास्ता दे दें? तो जो लोग खुश हो रहे थे कि विपक्षी दलों पर बड़ी आफत आ गयी है, उनकी खुशी झूठी थी ना? और जो लोग इस बात पर खफा थे कि मोदी सरकार ने काला धन बाहर निकालने के लिए नहीं, केवल विपक्षी दलों का पैसा बर्बाद करने के लिए नोटबंदी की है, उनका भी गुस्सा बेकार था… है ना?

दोनों तरह की प्रतिक्रियाएँ मूल तथ्यों पर जाने के बदले टीवी स्क्रीन पर सनसनाती ब्रेकिंग न्यूज पट्टियों के आधार पर राय बनाने का नतीजा थीं। खैर, इस वाकये को देख कर मेरे मन में आया है कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में अब एक नया पाठ जोड़ जा सकता है – 35 साल पुराने नियम को अचानक ब्रेकिंग न्यूज की तरह कैसे पेश किया जाये?

क्या राजनीतिक दलों के बारे में कोई नया नियम-कानून बनाया गया है? नहीं। पहले भी 20,000 रुपये तक के चंदों पर उन्हें स्रोत नहीं बताना था, अब भी नहीं बताना है। चंदा चाहे नकद लिया हो या चेक से, पर उस टैक्स पहले भी नहीं देना था। आयकर अधिनियम की धारा 13ए, कोई आज नहीं बनी है। राजनीतिक दलों के लिए इस धारा के तहत चंदा ही नहीं, भवन वगैरह से होने वाली कमाई भी करमुक्त है। इसलिए यह तो पहले से ही समझा हुआ था कि राजनीतिक दल अपने खातों में पुराने नोट जमा कर सकते हैं, उन्हें इस जमा पर कोई दिक्कत नहीं होगी। 

इसमें यह भी समझना होगा कि राजनीतिक दलों की कहानी अलग है, नेताओं की कहानी अलग। बेशक दोनों जुड़े हुए हैं, पर पैसे के हिसाब-किताब में और कानून की नजर में दोनों अलग-अलग व्यक्तित्व हैं। 

क्या राजनीतिक दल अपनी काली नकदी जमा कर सकते हैं?

राजनीतिक दलों के पास 500 और 1000 रुपये के नोटों की शक्ल में जो पहले से पड़ा काला धन हो, क्या उसे वे बैंक में जमा कर सकते हैं? यहाँ समझ लें कि राजनीतिक दलों को आय कर नहीं देना होता। वे आय कर बचाने के लिए काली नकदी नहीं रखते, बल्कि उनके पास काली नकदी इसलिए होती है कि जिससे लिया, उसने अपना काला धन दिया और वह नहीं चाहता कि उसका नाम चंदा देने वालों की सूची में आये। वैसे, राजनीतिक दल किसी से काली नकदी में मिला चंदा असली दाता के नाम से चढ़ाने के बदले 20,000 रुपये से कम की राशियों में बहुत सारे अज्ञात लोगों से मिला हुआ दिखा सकते हैं, क्योंकि इससे कम के चंदे के लिए उन्हें स्रोत बताना जरूरी नहीं है। 

सवाल है कि जब राजनीतिक दलों को इतनी छूट मिली हुई है ही, तो फिर चुनावों में इतना काला धन क्यों खर्च होता है? राजनीतिक दल बहुत आराम से बिना स्रोत बताये, जितना चाहे उतना पैसा अपने खाते में डाल सकते हैं और फिर मजे से चुनाव में उसे खर्च कर सकते हैं। पर वह पैसा खाते में डालने के बाद खर्च करने के बदले नकद नारायण में ही खर्च करना जरूरी क्यों होता है? कोई वजह होगी ना? अगर राजनीतिक दलों को बेहिसाब पैसा बिना स्रोत बताये बिना टैक्स दिये अपने खातों में जमा करने की सहूलियत है ही, तो हमारे राजनीतिक तंत्र में काले धन का इतना बोलबाला क्यों रहा है?

राजनीतिक दल सारा चंदा अपने खाते में डालने के बदले नकदी रखते हैं, ताकि वे बिना किसी को हिसाब दिये उसे खर्च कर सकें। सारा पैसा खातों में दिखा देने पर चुनाव में खर्च करते समय उनके हाथ बँधे रहेंगे। भले ही राजनीतिक दल अपने पास पड़ी नकदी बैंक में जमा कर सकते हैं और उस पर उन्हें कोई टैक्स या जुर्माना भी नहीं देना है, पर चुनाव में होने वाला नकद खर्च कैसे संभव होगा? 

बहरहाल, राजनीतिक दलों के पास अभी जो ऐसी नकदी पड़ी होगी, उसे वे 20,000 रुपये से कम चंदों के रूप में दिखा कर खाते में जमा कर देंगे। इस बात पर आपको गुस्सा आयेगा। आना ही चाहिए। सभी दलों पर दबाव बनायें कि 20,000 रुपये से कम के चंदों का स्रोत नहीं बताने का प्रावधान खत्म किया जाये। एक-एक पाई का स्रोत बताना उनके लिए जरूरी किया जाये।

क्या राजनीतिक दल दूसरों की काली नकदी सफेद कर सकते हैं?

राजनीतिक दल दूसरे लोगों की काली नकदी को अपने खातों में जमा करा कर सफेद करा दें, यह मुमकिन है। पर यह इतना आसान भी नहीं है। राजनीतिक दलों को 8 नवंबर के बाद 500 और 1000 के पुराने नोटों में चंदा लेने की छूट नहीं दी गयी है। राजनीतिक दलों को आयकर में छूट है, लेकिन पुराने नोट चलाने की नहीं। लेकिन जैसे मुझे या आपको छूट है कि 30 दिसंबर तक अपने पास पहले से मौजूद पुराने नोट बैंक में जमा करायें, वैसे ही राजनीतिक दलों को भी यह छूट है। जो इस छूट का दुरुपयोग करेंगे, वे छानबीन में पकड़े जा सकते हैं। 

राजनीतिक दलों को आयकर से छूट है, लेकिन शर्त यह है कि वे अपने खातों की ऑडिटिंग करायें और अपने आय-व्यय का ब्यौरा दें। आयकर की छूट अपने खातों की ऑडिटिंग कराने के बाद ही मिलती है। इसलिए हर राजनीतिक दल के पास पिछले साल कितने पैसे थे और इस साल कितने हैं, इसकी तुलना हो सकती है। यही नहीं, अगर कोई व्यक्ति अपना काला धन सफेद करने के लिए राजनीतिक दल को दे दे और वह दल अपने खाते में जमा कर दे, तो उसके बाद वह पैसा वापस उस व्यक्ति के पास कैसे आयेगा? क्या वह राजनीतिक दल उस व्यक्ति को किसी खर्च के मद में चेक से पैसा लौटायेगा? वैसी हालत में उस व्यक्ति की आय में वह पैसा जुड़ेगा और उस पर 30% टैक्स लग जायेगा। यानी पहले राजनीतिक दल को कमीशन दो, उसके बाद फिर से 30% टैक्स दो। भई, इससे तो आसान है कि 50% टैक्स भर दो अभी ही। 

अगर राजनीतिक दल वह पैसा नकद निकाल कर उस व्यक्ति को वापस करता है, तो पहले उस दल को अपने खाते में उतना नकद खर्च दिखाना होगा। जिस तरह से बड़ी राशि के नकद खर्चों पर शर्तें लग चुकी हैं, उनके मद्देनजर इस रास्ते से पैसा लौटाने की अपनी सीमाएँ होंगी। कहने का मतलब यह नहीं है कि राजनीतिक दलों को मिली छूट का दुरुपयोग एकदम हो ही नहीं सकता। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उन्हें एकदम खुला राजमार्ग मिला हुआ है, जिस पर वे अपने काले धन की गाड़ी बेरोकटोक चला सकेंगे। 

हालाँकि इस देश में गोरखधंधे करने वाले फिर भी जुगाड़ का साहस जुटा ही लेते हैं। तो क्या मोदी सरकार ऐसा राजनीतिक साहस दिखायेगी कि जो भी राजनीतिक दल पिछले वर्षों की तुलना में इस साल असामान्य रूप से ज्यादा चंदा या कमाई दिखा कर पुराने नोट बैंकों में जमा कराये, उनके खिलाफ जाँच का आदेश दे कर सख्त कार्रवाई करे? अगर मोदी सरकार ने ऐसा किया तो क्या लोग उसके ऊपर राजनीतिक दुर्भावना से कार्रवाई का आरोप लगायेंगे? अगर लगायेंगे भी, तो क्या इसके डर से सरकार अपना कर्तव्य पूरा नहीं करेगी? और, क्या खुद भाजपा के नेता ऐसे दुरुपयोग के लालच से बचे रहेंगे?

फिलहाल, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि “यदि राजनीतिक दलों के खातों या रिकॉर्ड में कोई अनियमितता मिलेगी, तो उनसे भी आयकर अधिकारी उसी तरह पूछताछ कर सकते हैं, जैसे किसी अन्य व्यक्ति से। उन्हें किसी तरह की विमुक्ति नहीं मिली हुई है।” इस स्पष्ट बयान के बाद अब कल को किसी राजनीतिक दल से अगर आयकर अधिकारियों ने पुराने नोट जमा कराने की मात्रा के बारे में कुछ उल्टे-सीधे सवाल पूछ लिये, तो वे राजनीतिक दुर्भावना से कार्रवाई का इल्जाम भी नहीं लगा सकते।

अब कुछ लोग तो यह भी कह रहे हैं कि नये राजनीतिक दलों की बाढ़ आ जायेगी और ऐसे दल पुराने नोट अपने खाते में डाल कर काले को सफेद कर लेंगे। पर 8 नवंबर के बाद पंजीकृत पार्टी क्या कह कर पुराने नोट जमा करायेगी? 8 नवंबर के बाद केवल वही पुराने नोट स्वीकार कर सकता था, जिसका उल्लेख सरकारी अपवाद सूची में हो। मगर 8 नवंबर की घोषणा या उसके बाद की किसी घोषणा में राजनीतिक दलों को यह छूट नहीं दी गयी थी कि वे पुराने नोट से चंदा लेते रहें।

इसलिए राजनीतिक दलों को जो छूट पहले मिली हुई थी, अब भी उतनी मिली हुई है। न कम न ज्यादा। लेकिन राजनीतिक दल अपने पास जो नकदी रखते थे, उसे उन्हें बैंक में जमा कराना होगा। बैंक में जमा कराने का मतलब है कि उसकी पूरी ऑडिटिंग होगी, भले ही टैक्स न लगे। आगे उस पैसे के खर्च का भी हिसाब देना होगा।

क्या नेता अपने पुराने नोट दल के खाते में जमा कर सकते हैं?

नेताओं के पास जो व्यक्तिगत काली नकदी होगी, उसका तो वही होगा जो बाकी लोगों के काले धन का हो रहा है। नेताजी उसे पार्टी फंड में थोड़े ही जमा करायेंगे! एक बार पार्टी फंड में चले जाने पर उससे वापस लेना नेताजी के लिए भी उतना ही मुश्किल हो सकता है। अगर कोई ऐसी कोशिश करेगा तो उसके लिए वही स्थिति होगी, जो किसी अन्य व्यक्ति के लिए राजनीतिक दल के जरिये पुरानी काली नकदी सफेद करते समय होगी। यानी, मुमकिन है पर जरा मुश्किल है। 

राजनेताओं की जेब में तो पार्टियाँ पहले से हैं ही। इसलिए पहले भी उनके लिए बहुत आसान होता काले को सफेद करना। फिर क्यों राजनेताओं के पास काला धन होता है? वे अपनी पार्टी के रास्ते से उसे पहले भी सफेद कर सकते थे ना?  पार्टी आखिर कितनी भी जेबी हो, पर होती तो एक पार्टी ही है। पार्टी का पैसा किसी नेताजी का अपना पैसा नहीं होता। क्या पता कब कोई सीताराम केसरी हो जाये! इसलिए किसी पार्टी का आलाकमान भी अपनी सारी व्यक्तिगत नकदी पार्टी के खाते में डाल कर खुद ठन-ठन गोपाल नहीं रहेगा। 

(देश मंथन, 19 दिसंबर 2016)

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