एक बीजेपी सांसद का दर्द

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उमाशंकर सिंह, एसोसिएट एडिटर, एनडीटीवी

प्रधानमंत्री ने आज ही सांसद आदर्श ग्राम योजना की शुरुआत की है। इस योजना को लेकर सांसदों के मन में किस तरह की शंका-आशंका है और मोदी के प्रधानमंत्रित्व में उनका कामकाज कैसा चल रहा है? यह सब एक सांसद से बातचीत में सामने आयी। पेश है बातचीत का ब्योरा:

कुछ दिनों पहले की बात है। बीजेपी के एक सांसद से कहीं मुलाकात हो गयी। शुरुआती प्रणाम पाती और इधर उधर की बातचीत के बाद मैंने कहा कि आपकी सरकार तो शानदार चल रही है। नंबर भी पूरे 282 हैं। अपने बूते की सरकार है सो लंगड़ी लगाने वाली कोई सहयोगी पार्टी भी नहीं है। इसलिए आप लोगों के कामकाज में किसी रूकावट का कोई चक्कर ही नहीं है। सब मजे में और मजबूती से चलता नजर आ रहा है।

मुझे नहीं पता था कि मेरा ऐसा कहना उनकी किसी दुखती रग को छू जायेगा। उनका गुबार फूट पड़ा। अरे साहब हमारा काम क्या खाक मजे में चलेगा। हमारी कोई पूछ ही नहीं है। अच्छा होता कि हम 282 के बजाये 12-14 कम होते। 268 ही होते। तब हम एक-एक सांसद का महत्व हमारी सरकार को पता होता। फिर हमारी भी सुनी जाती। अभी तो हालत यह है कि कोई काम लेकर किसी मंत्री के पास जाओ तो सुनता ही नहीं। कहता है कि यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता। इसके लिए मोदी जी से पूछना होगा उसके लिए उनसे परमिशन लेनी पड़ेगी। और आपको क्या बताऊँ। अपने क्षेत्र में स्कूल कॉलेज खोलने से लेकर इलाके के लोगों की ट्रांसफर पोस्टिंग तक किसी भी काम के लिए स्मृति ईरानी जी के पास कोई भी सांसद जाता है तो वह मना कर देती हैं। थोड़ा भी जोर डालने की कोशिश करो तो फोन हाथ में लेकर कहती हैं मोदी जी से बात कराऊँ क्या? अब हम ठहरे भला छोटे आदमी। मोदी जी से क्या बात करेंगे। अपनी फाइल फत्तर लेकर वापस चले आते हैं।

सांसद महोदय बिना रूके बोलते जा रहे थे। कहने लगे कि जीवन मुश्किल होता जा रहा है। क्षेत्र में जाओ तो लोग काम के लिए पूछते हैं। काम यहाँ हो नहीं रहा। ऊपर से हर सांसद को अपने क्षेत्र में एक आदर्श गाँव बनाने की जिम्मेदारी दे दी है। पूरी सांसद निधि भी झोंक दे तो आदर्श गाँव नहीं बन सकता। ऊपर से मारामारी यह कि लोग आदर्श गाँव के लिए अपने अपने गाँव का नाम देने की कोशिश करने लगे हैं। नहीं मानने पर नाराज होते हैं। सांसद महोदय की बात रोक कर मैंने बीच में जानने की कोशिश की कि सबके सामने लॉटरी से तय करने में भी दिक्कत है क्या? उन्होने कहा अरे साहब लॉटरी कौन मानता है। हमने तो सीधा सा रास्ता निकाला। झंझट से बचने के लिए हमने एक गाँव का नाम तय कर यह कह दिया कि मोदी जी ने फाइनल किया है। हम क्यों अपने सिर पर लें जब हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं। लेकिन इसमें भी डर यह है कि अगली बार जब दूसरे गाँवों में वोट माँगने जायेंगे तो वहां के लोग ये न कहें कि जाओ जिस गाँव को मोदी जी ने फाइनल किया उसी गाँव से वोट माँगो। पांच साल में पाँच आदर्श गाँव बना भी दें तो सिर्फ पाँच गाँव के वोट से तो जीतेंगे नहीं ना।

सांसद यह भी मानते हैं कि मोदी जी के दिशानिर्देश के पीछे मंशा अच्छी है। वह ग्रामीण इलाकों में भी बड़े बदलाव चाहते हैं। गाँववालों की जिंदगी बेहतर बनाना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए संसाधन कहाँ से आयेगा? कितना आयेगा? अगर सिर्फ सांसद निधि के भरोसे ही करना होगा तो पूरे संसदीय क्षेत्र के दूसरे काम कहाँ से होंगे? साल में पाँच करोड़ रूपये का मतलब सीधे तौर पर निकालें तो बस पांच किलोमीटर लंबी सड़क ही बन सकती है इसमें।

सांसद महोदय ने यह भी कहा कि इस चुनाव में कितना पैसा खर्च हुआ है? यह भी कि 5 साल बाद ही सही चुनाव में तो जाना है ना। उसके लिए कुछ चाहिए। दो नंबर से ना सही एक नंबर के किसी तरीके से ही पैसा तो चाहिए ही होता है चुनाव में। सांसद जी ने ये भी बताया कि जिसके खिलाफ वह चुनाव जीत कर आये हैं उस उम्मीदवार ने किस तरह करोड़ों रूपये खर्चे। अगली बार भी इसी तरह के उम्मीदवारों से पार पाना होगा। भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी पर अंकुश लगे यह तो ठीक है लेकिन क्षेत्र में अपनी राजनीति बचाने के लिए जरूरी है कि क्षेत्र के लोगों के काम तो हों। सिर पर डंडा लटकाने और नीचे तलवार की धार पर चलाने से तो काम नहीं चलेगा ना। 

सांसद महोदय की सीधी शिकायत फिलहाल मोदी जी से नहीं है। बल्कि उन मंत्रियों से थी जो या तो मोदी जी के प्रभामंडल का इस्तेमाल कर या फिर उनका डर दिखा कर सांसदों के साथ पेश आ रहे हैं। हर बात की खबर रखने वाले मोदी जी को ऐसा नहीं है कि इस तरह की बात की जानकारी नहीं होगी। लेकिन या तो वो अपनी जिम्मेदारियों में इतने व्यस्त है कि सांसदों की सुधि लेने का फिलहाल वक्त नहीं। या फिर उन्हें यह अभी उतना जरूरी नहीं लगता। हालाँकि बाद में कुछ सांसदों से बात करने पर पता चला है कि उन्होने सांसदों को भरोसा दिया है कि अगली बार चुनाव में जाने तक ऐसा बहुत कुछ हो जायेगा जिसके बूते वे ज्यादा आत्मविश्वास के साथ अपने अपने संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं के पास जा सकेंगे।

एक पत्रकार के तौर पर अभी तक आम लोगों की समस्याओं को सुना करता था। पहली बार है कि इस तरह से सांसद की समस्या सुन रहा था। लगा कि जब एक सांसद इतना लाचार महसूस कर रहा है तो वह अपने क्षेत्र की जनता को क्या दे पायेगा। सिर्फ जबानी जमाखर्च से उसका तो काम नहीं चलेगा। कई बहुत व्यावहारिक किस्म की समस्याएँ हैं। कुछ सांसद ये भी बताते हैं कि अभी सभी इंतजार करो और देखो की स्थिति क्या है। अपनी स्थिति हाशिए पर जाता देख साल दो साल बाद सांसद पार्टी के भीतर वे ज्यादा मुखर हो सकते हैं। कुल मिला कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस ‘कसावट’ के साथ काम कर रहे हैं उससे सांसदों के बीच एक गुबार भी पनप रहा है और वो गुबार कभी सार्वजनिक तौर पर भी फूट सकता है। आखिरकार किसी सांसद की राजनीति का अपना इलाका बचा रहेगा तभी तो वह किसी के साथ खड़ा रह सकेगा।

(नोट – यहाँ सांसद महोदय के नाम आदि का खुलासा नहीं किया जा रहा। पहचान जाहिर होने पर उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की आशंका है)

(देश मंथन, 11 अक्टूबर 2014)

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