वादों से बिजली

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :

अगर वादों, नारों से बिजली बनाना संभव होता, तो बिहार पूरे देश को बिजली सप्लाई करने जितनी बिजली बना पाने में समर्थ हो जाता। बिहार में वादे ही वादे सब तरफ से गिर रहे हैं। चुनाव आम तौर पर वादा महोत्सव होते हैं, पर बिहार विधानसभा चुनाव तो सुपर-विराट-महा-वादा महोत्सव हो लिये हैं।

इधर से वादे, उधर से वादे, जाने किधर-किधर से वादे।

पीएम मोदी कुछ समय पहले बिहार जाकर कुछ परियोजनाएँ शुरू करने की बात करके आये। पीछे से उनके विरोधियों के स्वर उठे-ये तो हमारी शुरू की गयी परियोजनाएँ हैं, मोदीजी ने इनपे अपना नाम कर लिया।

वो वादा हमारा वादा था, ये ले उड़े। ना ना ना ना हम तो ये वादा तीस सालों से करते आये हैं, यह वाला वादा वो ले उड़े। मतलब, बिहार में झगड़े अब परफारमेंस से ज्यादा उस बात के हो उठे हैं कि कौन सा वादा किसका था। परफारमेंस और वादों में यही फर्क होता है। परफारमेंस का क्रेडिट कोई एक ही ले सकता है और वादे तो सबके ही हो सकते हैं।

वादे कई तरह के होते हैं। पब्लिक से वादे अलग करने होते हैं। फिर पालिटिकल परिवारों को अपने बेटे-बेटियों से अलग वादे करने होते हैं। किसे कौन सा मंत्री बनायेंगे, किसे कौन सा मंत्री बनायेंगे, ये वादे अमूमन चुनाव से पहले ही कर लिये जाते हैं। बाजार सजा नहीं और उचक्कों ने पहले ही घेर लिया-यह कहावत अब बदल गयी है। अब कहावत यह है कि सरकार बनी नहीं, मंत्रियों ने पहले ही घेर लिया। नितीश सरकार के अभी के नेता भविष्य की संभावित सरकार के संभावित एक्शन की रिश्वत एडवांस में खाते दिखे। उम्मीद पर दुनिया ही नहीं, रिश्वत भी कायम है।

किसी गठबंधन सरकार के सामने तो आफतें और विकट हो जाती हैं। इतनी तरह के मंत्री घेर लेते हैं सरकार को उसके बनने से पहले ही, कई बार नेता हाहाकार कर उठते हैं कि हाय सरकार की ऐसी घेरा-घारी से बेहतर था कि सरकार बनती ही नहीं।

खैर, इतने वादे बरसे हैं बिहार में कि अगर वादों से बिजली बना पाना संभव होता, तो बिहार बिजली के मामले में ना सिर्फ आत्मनिर्भर हो लिया होता, बल्कि पूरी दुनिया में बिजली-एक्सपोर्ट तक करने की स्थिति में आ जाता। बिजली के वादे तो बिहार की जनता ने बहुत ही बहुत देख लिये, अब तो आँखें तरस रही हैं, उस तकनीक को देखने के लिए, जिसके जरिये वादों से बिजली बनायी जा सके।

एक ने वादा किया कि हम विदेश तक से बिजली लायेंगे यहाँ के लिए।

इस पर दूसरे ने कहा-हम हर घर में यहीं बिजली बना देंगे।

बिजली का एक वादा ग्लोबल है, एक वादा लोकल है। इन वादों की नाकामी से उपजा एक अंधेरा ग्लोबल टाइप का होगा, एक लोकल टाइप का होगा। जिसकी जैसी मरजी हो, अंधेरे को भुना सकता है। कोई कह सकता है कि हमारे अंधेरे की क्वालिटी बेहतरीन है क्योंकि यह ग्लोबल अंधेरा है। कोई कह सकता है ना हमारा अंधेरा लोकल स्वदेशी है, इसलिए इसकी क्वालिटी बेहतरीन है। बिजली की क्वालिटी में फर्क है, तो अंधेरे की क्वालिटी में भी तो फर्क हो सकता है ना।

वादों की वैरायटी है। बिजली लेकर आयेंगे, यह एक वादा है। बिजली आकर फिर लगातार रोज आती भी रहे, यह वादा अगले चुनाव का हो सकता है।

मेरे इलाके के एक नेता ने चुनाव लड़ा इस वादे पर कि बिजली लेकर आयेंगे।

बिजलीघर का शिलान्यास, उद्घाटन वगैरह सब हो लिया। बिजली एक दिन आयी, फिर आकर चली गयी। मतलब फिर बिजली का जाना सास-प्रताड़ित बहू जैसा हो गया, जो मौका पाते ही मायके की ओर निकल लेती हो। कुल मिलाकर आना कम हुआ और जाना ज्यादा। फिर एक दिन बिजली की हालत उस नान रेजीडेंट इंडियन एनआरआई होनहार लड़के जैसी हो गयी, जो एक बार गया, तो लौटा ही नहीं।

मार बमचक मची, फिर नेताजी ने वादा किया कि बिजली वह सिर्फ लायेंगे ही नहीं, बल्कि यह तक सुनिश्चित कर डालेंगे कि बिजली दिन में कुछेक घंटे आती रहे, ताकि बिजली को एक दम परमानेंटली गया एनआरआई ना मान लिया जाये।

खैर वादों के हल्ले में शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने आप से यह वादा कर लिया लगता है कि बिहार के चुनावों के बाद खुद को भाजपा से निष्कासित करवा लेंगे। बहुत आफत है पालिटिक्स में, बंदा एक बार खुद मिनिस्टर या चीफ मिनिस्टर मान ले, तो फिर सिंपल नेतागिरी करने में मन-जबान की सीमाएँ टूटने लगती हैं। और जैसा कि सबको पता ही है कि कोई बंदा आम तौर पर खुद को नहीं कहता-खामोश।

(देश मंथन, 31 अक्तूबर 2015) 

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