बिहार चुनाव में ध्रुवीकरण के लिए पुरस्कार लौटा रहे हैं लेखक

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अभिरंजन कुमार :

किसी दिन पुरस्कार लौटाने के लिए यह जरूरी है कि आज पुरस्कार बटोर लो। पुरस्कार मिले तो भी सुर्खियाँ मिलती हैं। मिला हुआ पुरस्कार लौटा दो तो और अधिक सुर्खियाँ मिलती हैं। समूह में पुरस्कार लौटाना चालू कर दो तो क्रांति आ जाती है। ऐसी महान क्रांति देखकर मन कचोटने लगा है। काश…

—उस वक्त किसी ने पुरस्कार लौटाना था, जब देश में लाखों किसान आत्महत्या करते रहे। आज न जाने कितने किसानों का घर-परिवार उजड़ने से बच गया होता।

—उस वक्त किसी ने पुरस्कार लौटाना था, जब देश में पहला दंगा हुआ। कश्मीर, दिल्ली, भागलपुर, मुंबई, गुजरात, मुजफ्फरनगर में हजारों लोगो की जानें न जाती।

—उस वक्त किसी ने पुरस्कार लौटाना था, जब देश में भ्रष्टाचार का पहला मामला सामने आया होगा। आज चारा, वर्दी, टूजी, कॉमनवेल्थ, कोल, एनआरएचएम, व्यापम जैसे घोटाले न हुए होते।

—उस वक्त किसी ने पुरस्कार लौटाना था, जब पहली बार किसी रईसजादे या नेता की औलाद ने देश की किसी बेटी की आबरू से खेला होगा। आज कितनी माताओं-बहनों की आबरू बच गयी होती।

—कोई इस बात के लिए भी पुरस्कार लौटाना था कि रोज न जाने कितने बच्चे-बच्चियों की तस्करी हो रही है। वे गायब करा दिये जा रहे हैं और माँ-बाप उन्हें ढूंढ़ते-ढूंढ़ते, थानों में रपटें लिखाते हुए, अखबारों में इश्तहार देते हुए समाप्त हो जाते हैं।

—किसी ने इस बात के विरोध में भी पुरस्कार लौटाना था कि 68 साल बाद भी देश की सरकारें सभी बच्चों को स्कूल और मरीज़ों को इलाज की समुचित सुविधाएँ तक नहीं दे पायी हैं, क्यों? स्कूल और अस्पताल तो देश की पहली और सबसे बड़ी जरूरत हैं। इनके लिए भी तो किसी ने पूछना था न… कि और कितने दशक लगेंगे तुम्हें हमारे बच्चों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य का इंतजाम करने में? और अगर नहीं कर सकते तो रखो अपने पुरस्कार और प्रमाणपत्र!

कहना पड़ेगा कि लेखकों में क्रांति की ऐसी अपूर्व चेतना अगर पूर्व में ही आ गयी होती तो देश 68 साल पीछे नहीं होता। देश को 68 साल पीछे ढकेलने के लिए ये लेखक लोग भी जिम्मेदार हैं। जिन लोगों ने इन चीजों के विरोध में अपने पुरस्कार नहीं लौटाए, उनके नाम तमाम दस्तावेजों से मिटा दो। वे लोग किसी काम के नहीं थे।

ये सवाल उठा रहा हूँ, इसका मतलब कतई नहीं कि मैं बीजेपी या मोदी सरकार का समर्थक हूँ। यह ठीक है कि “पुरस्कृत” लोगों की आवाजें दूर तक पहुँचती हैं और हम जैसे “अपुरस्कृतों” की आवाजें नक्कारखाने में तूती की बनकर रह जाती हैं, लेकिन दादरी कांड पर तमाम लोगों से पहले मैंने लिखा कि यह घटना हुई नहीं, कराई गयी है बिहार-चुनाव को प्रभावित करने के लिए।

…लेकिन क्या पहली बार इस देश में कोई हिन्दू या मुसलमान गंदी राजनीति या सांप्रदायिक उन्माद या दंगे का शिकार हुआ है? और बात सिर्फ सेलेक्टिव दंगों की ही क्यों? आजाद भारत में इन सभी दंगों से बड़ी त्रासदी तो हुई कश्मीर में लाखों पंडितों के साथ, जिन्हें अपनी ही जमीन, अपने ही घरों, अपने ही राज्य से मारकर भगा दिया गया और कश्मीर को देश का अभिन्न अंग कहने वाली तमाम सरकारें 25 साल बाद भी उन्हें दोबारा बसा नहीं पाई हैं।

गुजरात दंगे में एक हजार लोग मारे गये। दिल्ली दंगे में तीन हजार लोग मारे गए। लेकिन कश्मीर में अनगिनत पंडित मारे गये। उनकी औरतों के साथ बलात्कार हुआ। कई लड़कियों की जबरन दूसरे धर्म के लोगों के साथ शादी कराई गयी। धर्मांतरण हुआ। घरों पर पोस्टर चिपका दिए गये कि कश्मीर छोड़कर नहीं गये तो मारे जाओगे। अंततः तीन लाख से ज़्यादा लोग विस्थापित हो गये। इनमें से किसी के भी साथ अखलाक के परिवार से कम जुल्म नहीं हुआ।

…लेकिन इस देश के ‘पुरस्कृत’ लेखकों की संवेदना और समझ देखिए कि दंगों के जिक्र में वे दिल्ली, मुंबई, गुजरात, मुजफ्फरनगर सबकी चर्चा करते हैं, पर कश्मीर की चर्चा ही नहीं करते। तमाम दंगों के विस्थापित देर-सबेर बसा दिये गये, लेकिन कश्मीर के विस्थापित अगर आज तक बसाए नहीं जा सके, तो यह अनुल्लेखनीय क्यों? अपने ही देश की सरहद में इतने बड़े पैमाने पर योजनाबद्ध तरीके से दीर्घकाल तक चले सांप्रदायिक दंगे, आतंक और विस्थापन पर आज तक किसी ने पुरस्कार क्यों नही लौटाया?

सवाल उठता है कि पुरस्कार लौटाना कब जरूरी समझते हैं आप? कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के राज में कैसे भी कुकर्म चलते रहें, आपकी आत्मा में गांधी जी के तीनों बंदर क्यों घुस जाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि आप जिन राजनीतिक दलों की चापलूसी करते रहे हैं, आज जब उनके पास दिखाने को चेहरा नहीं बचा, तो उन्होंने आपको आगे कर दिया है?

सच्चाई यह है कि सांप्रदायिक दंगे, उन्माद और असहिष्णुता से मुकाबला तो इस देश के साधारण लोग ही करते हैं। आप लोग तो बस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करा रहे हैं अपने आकाओं के निर्देश पर। वरना बड़ी-बड़ी त्रासदियों के बीच पुरस्कारों, फेलोशिप और यात्राओं के लिए जोड़-तोड़ करते रहने वाले आप लोग ऐन बिहार चुनाव के बीच ऐसे क्रांतिकरी नहीं बन जाते।

अगर बिहार में चुनाव नहीं हो रहे होते, तो भी मैं आप लोगों की क्रांतिधर्मिता पर संदेह न करता शायद, लेकिन जिस तरह से दादरी में पहले एक घटना कराई गयी, फिर उसे जबर्दस्ती हिन्दू-मुस्लिम का रंग दिया गया, और अब आप लोगों के शिगूफे… इससे साफ जाहिर है कि दोनों तरफ के रणनीतिकार वे सारे हथकंडे अपना लेना चाहते हैं, जो यह चुनाव उन्हें जिता सके और आगे भी रोटियाँ सेंकने के लिए सांप्रदायिक चूल्हे सुलगा सके।

एक विनायक सेन की रिहाई के लिए दुनिया भर के नोबेल विजेता एकजुट हुए थे। हम भी हैरान थे कि जिसे देश में ही कोई नहीं जानता, दुनिया भर में उसके लिए इतना समर्थन कहाँ से आया? …और अब दादरी कांड को हथियार बनाकर आप अकादमी विजेता एकजुट हुए हैं। न नोबेल विजेता इस देश के किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए आए थे, न आप आए।

ऐसा लगता है कि नेताओं की तरह लेखक भी जनता को उल्लू ही समझते हैं!

(देश मंथन, 15 अक्तूबर 2015)

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