मोदी विरोध का विकल्प मोदी

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रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :

सोलह मई को मतगणना होने वाली है। अभी से सरकार को लेकर क़यास लगा रहे होंगे। यह एक सामान्य और स्वाभाविक लोकतांत्रिक उत्सुकता है।

सब अपने अपने अंदाजीटक्कर को लेकर भाँजेंगे। मैंने कहा था न कि तीन सौ आयेगी मैंने कहा था न कि मोदी वोदी की कोई लहर नहीं है। गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे।

किसी की बात सही होगी तो किसी की ग़लत। लेकिन ज़रा मुड़कर चुनाव को देखिये तो समझ आयेगा कि क्यों बीजेपी की सरकार बन रही है। मोदी का विरोध तो हुआ मगर मोदी का कोई विकल्प नहीं दिया गया। तथाकथित सेकुलर ताक़तें आपस में लड़ रही थीं न कि मिलकर बीजेपी से। खुद को एक मतदाता की जगह रखकर सोचिये। वो इस चुनाव में मोदी विरोध के नाम पर भाग लेता भी है, तो वोट किसे दे। यह चुनाव बीजेपी को हराने के लिए नहीं था। यह चुनाव था हर हाल में कांग्रेस को हराने के लिए। मोदी ने शुरू से ही कांग्रेस पर इतना हमला किया कि कांग्रेसियों को यक़ीन हो गया कि जनता इस बार ख़िलाफ़ है। इसका मनोवैज्ञानिक असर यह हुआ कि सहयोगी कांग्रेस के साथ खुलकर आने से रह गये। आम मतदाता एक साथ दो राष्ट्रीय दलों का विरोध करते हुए अलग-अलग कई क्षेत्रीय दलों के साथ क्यों जायेगा। वोटर भी सरकार के स्थायीत्व को समझता है। उसका काम भी मोदी विरोधी दलों ने ही आसान कर दिया। कोई साफ़ विकल्प न देकर।

दूसरी बात यह है कि इस चुनाव में कई क्षेत्रीय दल सोते रहे। शायद जानबूझकर ही ऐसा किया। हर मैदान को बीजेपी के लिए छोड़ दिया। जनता उनके मोदी विरोध की गंभीरता को समझ रही थी। सपा ने बनारस में अपने ही काम का प्रचार नहीं किया और नीतीश ने बिहार में। दूसरी तरफ़ मोदी ने न सिर्फ टीवी रेडियो और होर्डिंग को छाप लिया बल्कि हर बूथ पर संघ की मदद से कई स्तर पर प्रचार किया। बनारस में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ साथ गुजरात मुंबई और यूपी से व्यापारियों कारोबारियों को भी भेजा। जाति भाषा के हिसाब से मतदाताओं को टारगेट किया। इससे अगर तुलना करें तो मोदी विरोधी दल दिन में सपने देख रहे थे कि उनकी तरह मतदाता भी मोदी का विरोधी है।

मोदी विरोधियों ने व्यापक स्तर पर सांप्रदायिकता का मुद्दा उठाने के बजाये गुजरात दंगों से जोड़े रखा। मोदी का विरोध करते तो मुलायम का भी करना पड़ जाता। किसी ने कहा कि व्यक्तिवादी राजनीति हो रही है जैसे मोदी न होते तो सामूहिक नेतृत्व वाली बीजेपी बहुत अच्छी थी! इनकी लड़ाई मोदी तक ही सीमित रह गयी। मोदी ने अच्छी बुरी सरकार का सपना तो बेच ही दिया लेकिन उनके विरोधी क्या बेच रहे थे। कौन सा सपना बेच रहे थे। इस चुनाव में कांग्रेस को क्यों जीतना चाहिए यह बात तो कांग्रेसी भी दावे से नहीं कह पा रहे थे। तो किसके भरोसे मोदी विरोधी यह कहने का नैतिक साहस करते। सपा बसपा को क्यों जीतना चाहिए क्या ये कहने का नैतिक साहस कर सकते थे। मोदी के सामने उनके विरोधी निहत्थे और सुस्त पड़े रहे।

राजनीतिक हमलों में भी तमाम दलों ने मोदी को वाकओवर दिया। जबकि मोदी ने एक एक बात का जवाब दिया और संदेश दिया कि वे सबको सुन रहे हैं। मोदी विरोधी हल्का विरोध कर चुप रहे। कोई लहर नहीं है टाइप। विकल्प के अभाव में मतदाता के एक बड़े वर्ग ने उनकी कमज़ोरियों और खराब बयानों, इंटरव्यू के दौरान प्रेस पर हावी होने की आदतों को नज़रअंदाज़ कर दिया। नतीजा यह हुआ कि हर चौक चौराहे और गाँव गलियों में आम मतदाता भी मोदी की तरफ़ से बहस करने लगा। तथाकथित सेकुलर दल मोदी के ख़िलाफ़ काउंटर नैरेटेवि’ नहीं रच सके। इन बहसों में जो मतदाता मोदी का विरोध भी करना चाहता था उसके पास तर्कों की कमी थी। हर तबके का नाराज मतदाता बीजेपी की तरफ गया। हर दल से निकल कर बीजेपी की तरफ़ गया। यूपी विधानसभा की तरह नहीं हुआ कि सपा को हराने के लिए बसपा को जीताया और बसपा को हराने के लिए सपा को। इसलिए विरोधी मतों के बँटवारे के कारण भी बीजेपी के पक्ष में संख्या समीकरण ज़्यादा बना। बीजेपी ही एकजुट और भयंकर डिटेलिंग के साथ चुनाव लड़ रही थी। 

ऊपर से मीडिया ने अपना स्पेस लुटा कर मोदी के ख़िलाफ़ हर काउंटर नैरेटिव की धार को कुंद कर दिया। आम मोदी विरोधी मतदाता निहत्था हो गया। अकेला पड़ गया। हर समय मोदी। ख़बर और विज्ञापन दोनों जगह। बहस के सवाल मोदी की तरफ़ से रखे और पूछे गये। मतदाता के मन में ऊपर से लेकर नीचे कर मोदी की परत जम गयी। कई दलों ने अच्छी दलीलें दीं मगर नहीं दिखाया। मोदी के ब्लाग को ख़बर बनाया लेकिन नीतीश के फ़ेसबुक अपडेट को छोड़ दिया। कांग्रेस लचर तरीके से बहस में आयी, तो बीजेपी का हर बड़ा प्रवक्ता कम टीआरपी वाले चैनलों में भी तैयारी के साथ गया। कांग्रेस के बड़े नेता अंग्रेज़ी चैनलों में गये, तो बीजेपी के हिन्दी चैनलों में। सपा बसपा के तो प्रवक्ता ही नहीं आये।

इसलिए मोदी विरोध का विकल्प भी मोदी ही बन गये। अब अगर बीजेपी के ख़िलाफ़ मतदाताओं में ग़ुस्सा था और वो किसी को नहीं दिखा सिर्फ मोदी विरोधियों को दिखा तो सचमुच सोलह को ज़लज़ला आ जायेगा। बीजेपी हार जायेगी। और अगर हार गयी तो अगली बार बीजेपी के उम्मीदवार को उनके ही घर वाले चंदा नहीं देंगे। प्रचार तंत्र का सारा तामझाम फ़ेल हो जायेगा और साबित हो जायेगा कि यह चुनाव मोदी नहीं बल्कि जनता लड़ रही थी। यह बताने के लिए कि वो व्यक्तिवादी राजनीति के ख़िलाफ़ है। वो राजनीति में पैसे के इस हद तक इस्तमाल के ख़िलाफ है। ऐसा है तो भारतीय राजनीति में नये सूर्योदय के स्वागत के लिए तैयार रहिए। जहाँ सब फ़ेल हो जायेंगे। अगर ऐसा नहीं है तो कभी लालू कभी मायावती कभी आप के बहाने मोदी विरोधी खुद को दिलासा न दें। खुद से यह सवाल करें कि क्या कोई मतदाता विकल्पहीन स्थिति के लिए वोट करेगा? वो मोदी को हराने के लिए क्यों वोट देता और किसे देता। जब कोई लड़ेगा नहीं तो वो जीतेगा कैसे। जीतता वही है जो लड़ता है।

(देश मंथन, 12 मई 2014)

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