ओबामा के पद चिह्नों पर मोदी का प्रचार

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रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :

अमरीका में 2008 में राष्ट्रपति का चुनाव हो रहा था। ओबामा अपने विज्ञापन की टीम के साथ बातचीत कर रहे थे। एक बड़े बैंकिंग फर्म के ध्वस्त होने की अफवाह जोरों पर थी।

ओबामा की टीम अमरीका में आ रहे आर्थिक संकट को समझने के लिए विशेषज्ञों के पास रवाना कर दी जाती है। ओबामा अपनी टीम से कहते हैं कि आप लोगों को इसे समझने की ज़रूरत है। अगर आर्थिक संकट आया तो चुनाव हवा हो जायेगा। 

इसी बैठक में एक रणनीति तैयार होती है कि आर्थिक संकट पर लम्बे लंबे भाषण तैयार किये जायें। टीवी पर पाँच पाँच मिनट के स्पाट खरीदें जायें। जिसे एक साथ टीवी और इंटरनेट पर चलाया जाये। बार बार दिखाया जाये ताकि लोग उसके बारे में बात करने लगे। ओबामा के कैंपेन मैनेजर डेविड प्लाफ कहते हैं कि बोलने की शैली ओवल आफिस के अभिभाषण जैसी होनी चाहिए। इस संकट के बहाने हम समाधान और अपने नेतृत्व का लंबा लंबा बखान करेंगे। तय होता है कि टीवी पर तीस सेकेंड के विज्ञापन का कोई मतलब नहीं है। जितने भी ऐसे विज्ञापन चल रहे हैं सब नकारात्मकता से भरे पड़े हैं। डेविड कहते है कि हमारे विज्ञापन में राहत की बात होगी। (अच्छे दिन आने वाले हैं टाइप)। हम उम्मीद जतायेंगे। 

लेकिन उस वक्त टीवी पर कोई स्पेस खाली नहीं था। रणनीतिकारों ने समझा कि कम ही नेता हैं जो लंबे भाषणों से माहौल रच सकते हैं। उस वक्त मैक्केन टीवी इंटरव्यू और टाउन हाल में दक्ष माने जा रहे थे। डेविड लिखते हैं कि मैक्केन डायरेक्ट टू कैमरा वाले भाषणों में उतने माहिर नहीं थे। कैमरे में आँख मिलाकर भाषण देने में ओबामा माहिर लगते हैं। 

आप इसे प्रसंग को राहुल गांधी की तुलना करते हुए समझिये। इंटरव्यू देने में अरविंद केजरीवाल आगेसनिकल चुके थे। मोदी इंटरव्यू के इस रास्ते को बाद के लिए छोड़ देते हैं। लंबे लंबे भाषण देने लगते हैं। कैमरा क्लोज में होता है। वे पूरे देश की यात्रा पर निकल जाते हैं। यहाँ भाषण वहाँ भाषण। विरोधी घर बैठे रह जाते हैं। अगस्त से जनवरी तक बिना किसी ठोस चुनौती का सामना किये हुए उनका भाषण एकतरफा लोगों के बीच पहुँचने लगता है। विरोधी गंभीरता से नहीं लेते हैं। घटिया प्रवक्ता भेजते हैं विरोध के लिए। मोदी जबरदस्त बढ़त हासिल कर लेते हैं। खैर आगे सुनिये।

ओबामा कहते हैं कि यह रणनीति अच्छी है। चलो करते हैं।” लोग आर्थिक संकट को लेकर भ्रमित हैं, डरे हुए हैं और निराश हैं। इस तरह के लंबे विज्ञापन से यह सब तो नहीं बदल सकता लेकिन मैं उन्हें यह भरोसा जताते हुए दिखना चाहता हूँ कि मेरे पास इस संकट से उबरने की योजना है, कम से कम इस संकट से निकाल कर मैं उन्हें कुछ राहत तो दे ही सकता हूँ।”

इसके बाद लंबे विज्ञापनों को चलाने के लिए पैसे जुटाये जाते हैं। ओबामा की टीम इतने पैसे जमा कर लेती है कि डेविड अपनी टीम को कहते हैं कि तुम सब बिगड़ जाओगे। चुनाव प्रचार में इतना पैसा कभी नहीं लगा होगा। ओबामा के लंबे भाषणों को टीवी पर बार बार चलाया जाता है। किस्से कहानियों को मिक्स किया जाने लगता है। हर तरफ़ ओबामा नज़र आने लगते हैं। उम्मीद बेचते हुए ओबामा। पहले कार्यकाल में अमरीका की अर्थव्यवस्था संकट में ही घिसटती रहती है। ओबामा नहीं सँभाल पाते हैं। दूसरा कार्यकाल ख़त्म होने जा रहा है। अमरीकी अर्थव्यवस्था अभी तक सँभल ही रही है (इसके बारे में कम जानता हूँ)। ओबामा ने अपनी टीम से ठीक कहा था। भरोसा बेचो।

जो लोग भारत के इस चुनाव को समझना चाहते हैं उन्हें David plouffe की the audacity to win पढ़नी चाहिए। पेंग्विन ने छापी है । मुझे पढ़ते हुए लगा कि नरेंद्र मोदी का अभियान पूरी तरह से इस किताब से निर्देशित है। एक एक रणनीति मेल खाती है। संयोग भी हो सकता है मगर मैं पूरी तरह ग़लत भी नहीं हो सकता। जिस तरह मोदी के आने से पहले अन्ना और केजरीवाल टीवी के स्पेस में छाये हुए थे उसी तरह ओबामा के आने के पहले हिलेरी क्लिंटन छा गईं थीं। उनकी जीत का इंतजार हो रहा था मगर डेविड की टीम ने अपनी प्रचार रणनीति से सबकुछ बदल दिया । हिलेरी अरविंद की तरह हाशिये पर चली गईं और ओबामा अश्वेत, ईसाई, अफ़्रीकी और अमरीकी न जाने क्या क्या और किन किन किस्सों में ढाल कर उम्मीद बन गये। चाय वाला का क़िस्सा यू नहीं उभरा होगा । उस मित्र का शुक्रिया जिसने यह किताब भेजी थी। आप सबको पढ़नी चाहिए। एक टीवी क्या क्या कर सकता है। मोदी अकारण साल भर से टीवी पर लंबे लंबे भाषण नहीं दे रहे हैं। ओबामा दे चुके हैं।

(देश मंथन, 21 अप्रैल 2014)

 

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