संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
“डाक्टर साहब मेरा बेटा ठीक होगा कि नहीं, सच-सच बताइए।”
मध्यप्रदेश के सुदूर गाँव का एक आदमी जबलपुर के सरकारी अस्पताल के बच्चा वार्ड में भर्ती अपने बच्चे के लिए बार-बार डॉक्टर से यही पूछ रहा था।
डाक्टर बार-बार कह रहे थे, “मैं इलाज कर रहा हूँ। आप परेशान न हों। ईश्वर ने चाहा तो जल्दी ठीक हो जाएगा।”
“लेकिन डाक्टर साहब अगर मेरा बेटा मर गया तो?
“अरे शुभ-शुभ बोलिए। ऐसा क्यों कहते हैं। जीना और मरना तो ईश्वर के हाथ में है। हम डॉक्टर क्या कर सकते हैं?”
“नहीं डॉक्टर साहब, मुझे पक्के तौर पर बताइए कि मेरा बेटा क्या इस बीमारी से मर भी सकता है?”
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डॉक्टर मरीज के बीच के इस संवाद को मुझे जबलपुर के पास कान्हा के जंगल में डॉक्टर Avyact Agrawal सुना रहे थे। डॉक्टर अग्रवाल की एक खासियत है, वो पूरी कहानी सुनाते हुए एकदम गंभीर रहते हैं और जब उस कहानी का क्लाइमेक्स सामने आता है, तो सुनने वाले के कान सुन्न हो जाते हैं।
डॉक्टर अग्रवाल कह रहे थे कि बच्चा बहुत बीमार था। उसे अभी इलाज की जरूरत थी। डॉक्टर को उम्मीद थी कि बच्चा बच जाएगा। पर पता नहीं क्यों माँ-बाप को उम्मीद नहीं थी कि बच्चा नहीं बचेगा। पर जिस शिद्दत से वो बार-बार पूछते कि बच्चा कहीं अस्पताल में ही तो नहीं मर जाएगा न, उसकी वजह डॉक्टर नहीं समझ पा रहे थे। किसी भी बाप के मन में अपने बच्चे के स्वास्थ्य की चिंता हो सकती है। कोई भी बाप अपने बेटे को बीमार देख कर दुखी हो सकता है। पर यहाँ तो बाप की चिंता बस इतनी ही थी कि बच्चा कहीं अस्पताल में न मर जाए।
एक सुबह माँ-बाप दोनों अड़ गये कि डॉक्टर साहब आप मेरे बच्चे को छोड़ दीजिए। हम उसे गाँव ले जाना चाहते हैं।
डॉक्टर समझाने लगे कि अभी इसे गाँव नहीं ले जा सकते। अभी इसका इलाज चल रहा है। आप कुछ दिन और रुकिए। पर बच्चे के माँ-बाप अड़ गये कि वो अपने बच्चे को इसी हालत में गाँव ले जाना चाहते हैं, वो और इंतजार नहीं कर सकते।
डॉक्टर बच्चे को छोड़ने को तैयार नहीं थे। पर माँ-बाप की जिद के आगे उनकी एक न चली।
आखिर बच्चे को अस्पताल से छोड़ दिया गया। यह लिख कर छोड़ा गया कि बच्चा माँ-बाप की मर्जी से यहाँ से जा रहा है। उसकी हालत गंभीर है।
माँ-बाप बच्चे को लेकर गाँव चले गये।
कई दिनों के बाद डॉक्टर को पता चला कि उस बच्चे की मृत्यु हो गयी है, जिसे उसके माँ-बाप जबरन अपने साथ ले गये थे।
डॉक्टर ने पता किया कि आखिर क्या वजह थी कि माँ-बाप उस बीमार बच्चे को घर ले जाने की जिद कर बैठे थे।
अब आप जो सुनने जा रहे हैं, उसे सुनने से पहले अपने कान चाहे तो बंद कर लें। आप जो पढ़ने जा रहे हैं, आप चाहें तो अपनी आँखें बंद कर लें। आप चाहें तो संजय सिन्हा की पोस्ट आज पढ़े ही नहीं, क्योंकि अगर आप पढ़ेंगे, सुनेंगे तो मेरा दावा है कि आपकी आँखें थम जाएंगी, कान सुन्न पड़ जाएंगे।
डॉक्टर को जो पता चला वो कुछ इस तरह था।
बच्चे के माँ-बाप को लग रहा थ कि अगर बच्चा अस्पताल में मर गया तो वे उसके शव को गाँव नहीं जा पाएंगे। मरे हुए बच्चे को ले जाने के लिए या तो टैक्सी करनी होगी, या कोई और सवारी। उसका किराया बहुत लगेगा। और जीवित बच्चा तो बस में एक टिकट के पैसे में गाँव पहुँच सकता है। तो माँ-बाप को लग रहा था कि कहीं बच्चा अस्पताल में मर गया तो उसके शव को घर तक ले जाने में ही उनके सारे पैसे खत्म हो जाएंगे। इसीलिए उन्होंने गंभीर रूप से बीमार बच्चे के इलाज का जोखिम नहीं उठाया। मरने से पहले उसे अपने साथ ले गये। वो जिन्दा मगर बहुत बीमार बच्चे को अपने साथ ले गये। बस एक टिकट के खर्च पर ले गये।
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डॉक्टर कह रहे थे कि जिन्दगी और मौत तो ईश्वर के हाथ में है। बच्चा बच भी सकता था। पर माँ-बाप उसके मर जाने के बाद घर पहुँच पाने का खर्च नहीं उठा सकते थे।
और और और…
मेरे कान सुन्न हो गये थे।
क्या गरीबी सचमुच अभिशाप है?
क्या हमारे हुक्मरान सिर्फ बातें करते रहेंगे। आजादी के इतने वर्षों बाद भी गरीबों के लिए मौत जिन्दगी से ज्यादा आसान बनी रहेगी?
अगर ऐसा है, तो लानत है ऐसी व्यवस्था पर। सरकार किसी भी पार्टी की हो, लानत है ऐसी सरकार पर।
(देश मंथन 28 जून 2016)