रेल यात्री नहीं देख रहे कोई बदलाव

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राजेश रपरिया : 

रेल मंत्री सुरेश प्रभु की नींद आजकल उड़ी हुई है। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं कि केवल पेट्रोल डीजल के दामों में आयी गिरावट से हर परिवार को डेढ़ हजार से साढ़े चार हजार रुपये तक की बचत हुई है।

लेकिन सुरेश प्रभु को यह बात समझ में नहीं आ रही है कि पेट्रोल-डीजल के दाम कम होने के बाद भी रेल का ईंधन खर्च कम क्यों नहीं हो रहा है। प्रधानमंत्री मोदी को प्रभु से भारी उम्मीदें हैं। रेल मंत्री को मोदी के सपनों को साकार करना है, बुलेट ट्रेन चलानी है, कई रेल मार्गों पर रफ्तार बढ़ानी है, रेल को स्वच्छता का पर्याय बनाना है, रेलवे स्टेशनों को विश्वस्तरीय बनाना है, उत्तर-पूर्वी राज्यों में रेल परियोजनाओं को जल्द-से-जल्द पूरा करना है, मौजूदा रेल लाइनों को आधुनिक बनाना है, रेल सुरक्षा के बुनियादी ढाँचे को अद्यतन करना है, डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर को अधिकाधिक फंड मुहैया कराना है, और इन सबसे बड़ा सवाल उनके सामने यह है कि रेल की 286 विलंबित परियोजनाओं के लिए पुनः 188,000 करोड़ रुपये का प्रबंध करना है। 

यद्यपि चालू साल में रेल मंत्रालय ने आमदनी के लक्ष्यों को लगभग पूरा कर लिया है। यह सफलता उन्हें 13-14 में बेतहाशा किराये और भाड़े में हुई वृद्धि से मिली है। लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि आमदनी के लक्ष्यों को लगभग पूरा करने के बाद भी रेल के यात्री घट रहे हैं और माल ढुलाई की मात्रा में कमी आ रही है। रेल मंत्री की एक और समस्या यह है कि रेल संचालन खर्च के अनुपात को वे चालू साल में कम नहीं कर पा रहे हैं। रेल मंत्रालय अगर 100 रुपये कमाता है तो उसमें से लगभग 92.5 रुपये रेल के संचालन में खर्च हो जाते हैं, जबकि यह अनुपात साल 2013-14 में 90.8 फीसदी था। रेलवे बोर्ड के अधिकारी प्रभु को यह समझाने में जुटे हैं कि रेल का ईंधन खर्च इसलिए कम नहीं हो पा रहा है कि पेट्रोल-डीजल के दाम अवश्य गिरे हैं, पर बिजली के दाम बढ़े हैं। 

रेल मंत्री के सामने बड़ी चुनौती यह है कि रेलवे की इतनी भारी-भरकम परियोजनाओं के लिए धन कैसे जुटायें। खुद रेल मंत्री कुछ कड़े निर्णय लेने के पक्ष में हैं। लेकिन आगामी बजट में वे किराये और भाड़े में वृद्धि कर पायेंगे, इसकी संभावना लगभग शून्य है। कुछ प्रीमियम ट्रेनों के किराये और तत्काल टिकट की दरों में कुछ बदलाव करने की संभावना बन सकती है। जाहिर है कि रेल मंत्रालय को अपने इन तमाम लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आम बजट से मिलने वाले बजटीय समर्थन और बाजार पर निर्भर रहना पड़ेगा। ऐसी उम्मीद जतायी जा रही है कि इस बार आम बजट से 30,000 करोड़ रुपये की बजटीय सहायता रेल मंत्रालय को मिल सकती है, जो मूलतः उत्तर-पूर्वी राज्यों की रेल परियोजनाओं पर खर्च होनी हैं। इस क्षेत्र में विदेशी निवेश या सहायता की संभावना ना के बराबर है। 

सुरेश प्रभु को रेल मंत्री बनाने के पीछे प्रधानमंत्री मोदी की मंशा यह थी कि सुरेश प्रभु बाजार के बाजीगर हैं। इसलिए वे रेल परियोजनाओं के लिए भारी मात्रा में रेलवे बांडों और द्विपक्षीय समझौतों से पर्याप्त पूँजी जुटा लेंगे। इस बात की संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि रेल मंत्री वित्त मंत्रालय से पेंशन फंड में जमा छह लाख करोड़ रुपये की राशि के इस्तेमाल के लिए इजाजत माँगें। 

रेल के कायाकल्प का एक बड़ा दारोमदार पीपीपी यानी निजी-सरकारी सहभागिता पर टिका हुआ है। लेकिन न यूपीए सरकार को और न मौजूदा सरकार को इसमें कोई विशेष सफलता मिली है। उदाहरण के लिए, केवल छह परियोजनाएँ पीपीपी मॉडल के आधार पर शुरू हुई हैं। इनमें जमीन रेल मंत्रालय ने दी है, और संयंत्र निजी क्षेत्र ने लगाये हैं। पर हास्यास्पद बात यह है कि ये परियोजनाएँ बस बोतलबंद पानी की हैं। इसलिए इस मॉडल पर रेलवे के कायाकल्प की मंशा को कितना समर्थन मिलेगा, यह अभी संदिग्ध है। इसलिए रेल मंत्री को रेलवे परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए बाजार एवं द्विपक्षीय समझौतों पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। जापान और चीन से रेल परियोजनाओं के लिए निवेश मिलने की उम्मीद की जा सकती है। 

लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि 2013 से किराये और भाड़े में भारी वृद्धि के बावजूद रेल सुविधाओं में कोई परिवर्तन रेल यात्रियों को नहीं महसूस होता। रेल मंत्री वास्तव में जादू करके दिखा सकते हैं, यदि वे रेल ढाँचे की मौजूदा कार्यक्षमता को बढ़ाने पर अपनी ज्यादा ऊर्जा केंद्रित करें। मसलन, यदि मालगाड़ी के एक फेरे में छह दिनों का समय लगता है और वे उसे घटा कर पाँच दिनों का कर लेते हैं तो माल ढुलाई की आमदनी में 2.5% का इजाफा हो सकता है। 

(देश मंथन, 25 फरवरी 2015)

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